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________________ आराथनासमुच्चयम् १६९ नाना प्रकार का वृत्तिपरिसंख्यान तप कहलाता है। आहार की (भोजन करने की) अभिलाषाओं का निरोध करने के लिए यह तप किया जाता है। साधुजन आहार की इच्छाओं का निरोध करने के लिए भिक्षा को जाते समय अपने मन में अनेक प्रकार की अवधारणा करते हैं कि इस गली में, इस घर में, अमुक दाता इस प्रकार के फल आदि लेकर पड़गाहन करेगा, ऐसा योग मिलेगा, तो आहार ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं, ऐसा नियम लेना वृत्तिपरिसंख्यान है। खड़े रहना, एक पार्श्व से मृतक की तरह सोना, वीरासनादि से बैठना इत्यादि अनेक प्रकार के कारणों से शास्त्र के अनुसार आतापनादि योगों के द्वारा शरीर को क्लेश देना कायक्लेश तप है। योग रूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचय को प्राप्त औदारिक आदि रूप पुद्गल पिण्ड को काय वा शरीर कहते हैं। कर्मों की निर्जरा के लिए जो आतापनादि योग के द्वारा शरीर को कष्ट दिया जाता है, वह कायक्लेश कहलाता है। यह शरीर के कदर्थनरूप तप अनेक उपायों द्वारा सिद्ध होता है। यहाँ छह उपार्यों का निर्देश किया है, अयन, शयन, आसन, स्थान, अवग्रह और योग। इनके भी अनेक उत्तर भेद होते हैं। अयन - कड़ी धूप वाले दिन पूर्व से पश्चिम की ओर चलना अनुसूर्य है। पश्चिम से पूर्व की ओर चलना प्रतिसूर्य है। सूर्य जब मस्तक पर चढ़ता है ऐसे समय में गमन करना ऊर्ध्वसूर्य है, सूर्य को तिर्यक् करके गमन करना तिर्यक्सूर्य है, स्वयं ठहरे हुए ग्राम से दूसरे गाँव को विश्रान्ति न लेकर गमन करना और स्वस्थान को लौट आना या तीर्थादि स्थान को जाकर लगे हाथ लौट आना गमनागमन है। इस तरह अयन के अनेक भेद होते हैं। कायोत्सर्ग करना स्थान कहलाता है। जिसमें स्तम्भादि का आश्रय लेना पड़े उसे साधार, जिसमें संक्रमण पाया जाय उसको सविचार, जो निश्चल रूप से धारण किया जाय उसको सनिरोध, जिसमें सम्पूर्ण शरीर ढीला छोड़ दिया जाय उसको विसृष्टांग, जिसमें दोनों पैर समान रखे जॉय उसको समपाद, एक पैर से खड़े होना एकपाद, दोनों बाहु ऊपर करके खड़े होना प्रसारित बाहु आदि इस तरह स्थान के भी अनेक भेद हैं। आसन - जिसमें पिण्डलियाँ और स्फिक बराबर मिल जाँय वह समपर्यकासन है। उससे उल्टा असमपर्यंकासन है। गौ को दुहने की भाँति बैठना गौदोहन है, ऊपर को संकुचित होकर बैठना उत्करिका आसन है, मकर मुखवत् दोनों पैरों को करके बैठना मकरमुखासन है। हाथी की सूंड की तरह हाथ या पाव को फैलाकर बैठना हस्ति डासन है, गौ के बैठने की भाँति बैठना गोशय्यासन है। अर्धपर्यकासन दोनों जंघाओं को दूरवर्ती रखकर बैठना है। दक्षिण जंघा के ऊपर वाम पैर और वाम जंघा के ऊपर दक्षिण पैर रखने से वीरासन होता है। दण्डे के समान सीधा बैठना दण्डासन है। इस प्रकार आसन के अनेक प्रकार शयन - शरीर को संकुचित करके सोना लगड़शय्या है, ऊपर को मुख करके सोना उत्तानशय्या है, नीचे को मुख करके सोना अवाक्शय्या है। शव की तरह निश्चेष्ट सोना शवशय्या है। किसी एक करवट से सोना एकपार्श्वशय्या है, बाहर खुले आकाश में सोना अभ्रायकाश शय्या है। इस प्रकार शयन के भी अनेक भेद हैं।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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