SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आराधनासमुच्चयम् : १७३ इन दश दोषों से रहित होकर अपने दोषों को गुरु के चरणों में निवेदित करना आलोचना नामक प्रायश्चित्त है। प्रतिक्रमण - व्यक्ति को अपनी जीवनयात्रा में कषायवश पद-पद पर अंतरंग और बाह्य दोष लगा करते हैं, जिनका शोधन एक श्रेयोमार्गी के लिए आवश्यक है। भूतकाल में जो दोष लगे हैं उनके शोधनार्थ प्रायश्चित्त, पश्चाताप व गुरु के समक्ष अपनी निंदा गर्हा करना प्रतिक्रमण कहलाता है। 'मेरा दोष मिथ्या हो' गुरु से ऐसा निवेदन करके प्रतिक्रिया व्यक्त करना प्रतिक्रमण है। गुरु के सामने आलोचना किये बिना संवेग और निर्वेद से युक्त साधु का फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा, यह कहकर अपने अपराध से निवृत्त होना प्रतिक्रमण नाम का प्रायश्चित्त है। स्वयं के द्वारा किये हुए अशुभ योग से परावर्त होना अर्थात् 'मेरे अपराध मिथ्या होवें', ऐसा कहकर पश्चाताप करना प्रतिक्रमण है । वचन - रचना को छोड़कर रागादि भावों का निवारण करके जो आत्मा को ध्याता है उसके प्रतिक्रमण होता है। जो विराधना को विशेषतः छोड़कर आराधना में वर्तता है, वह प्रतिक्रमण कहलाता है, कारण कि वह प्रतिक्रमणमय है। इसी प्रकार अनाचार को छोड़कर आचार को, उन्मार्ग का त्याग करके जिनमार्ग को, शल्यभाव को छोड़कर निःशल्य भाव को, अगुप्ति भाव को छोड़कर त्रिगुप्ति भाव को, आर्तरौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म अथवा शुक्ल ध्यान को, मिथ्यादर्शन आदि को छोड़कर सम्यग्दर्शन को भाता है वह जीव प्रतिक्रमणमय है। तदुभय प्रायश्चित्त दुःस्वप्न देखने आदि के अवसरों पर तदुभय प्रायश्चित्त होता है। केशलोंच, न का छेद, स्वप्नदोष, इन्द्रियों का अतिचार तथा पक्ष मास संवत्सरादि के दोषों में तदुभय प्रायश्चित्त होता है अर्थात् इनमें आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों होते हैं। विवेक प्रायश्चित्त शक्ति को न छिपाकर प्रयत्न से अप्रासुक का परिहार करते हुए भी किसी कारणवश अप्रासुक के स्वयं ग्रहण करने, ग्रहण कराने में छोड़े हुए प्रासुक का विस्मरण हो जाये और ग्रहण करने पर उसका स्मरण आ जाये तो उसका पुनः उत्सर्ग करना विवेक प्रायश्चित्त है अर्थात् स्मरण आते ही उस वस्तु का त्याग करना विवेक है। व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त कायोत्सर्ग को व्युत्सर्ग कहते हैं । दुःस्वप्न, दुश्चिन्ता, मलोत्सर्ग, मूत्र का अतिचार, महानदी, महाअटवी के पार करने आदि में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। मौनादि धारण किये बिना ही लौंच करने पर, उदर में से कृमि निकलने पर, हिम, दंशमशक, महावातादि के संघर्ष से अतिचार लगने पर, स्निग्धभूमि हरित तृण, कर्दम आदि के ऊपर चलने पर, घुटनों तक जल में प्रवेश कर जाने पर, अन्य निमित्तक वस्तु को उपयोग में ले लेने पर, नाव के द्वारा नदी पार होने पर, पुस्तक या प्रतिमा आदि के गिरा देने पर, पंच स्थावरों का विघात करने पर, बिना देखे स्थान पर शारीरिक मल छोड़ने पर, पक्षादि प्रतिक्रमण -
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy