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________________ आराधनासमुच्चयम् १६७ प्रिय वचनों से अपने कुटुम्बियों को और नौकर-चाकरों को क्षमा करावे और स्वयं भी सबको क्षमा करे। गुरु के समीप जाकर छलकपटरहित सरल भावों से जन्म भर अज्ञात वा ज्ञात भावों से कृतकारित अनुमोदना से किये हुए समस्त पापों की आलोचना करके महाव्रतों को धारण करे। तदनन्तर शोक, भय, विषाद, राग, कलुषता, अरति का त्याग करके तथा अपने बल और उत्साह को प्रगट करके संसार के दुःखरूपी संताप को दूर करने वाले अमृत स्वरूप शास्त्रों के श्रवण से मन को प्रसन्न करे। क्रम, क्रम से आहार को छोड़कर दुग्ध वा छाछ को बढ़ावे । तत्पश्चात् दूध का भी त्यागकर कांजी तथा गर्म पानी ग्रहण करे। तत्पश्चात् उष्ण जलपान का भी त्याग कर यावज्जीवन उपवास ग्रहण कर पंच नमस्कार मंत्र का जप करते हुए प्राणों का विसर्जन करे, यह श्रावक की भक्तप्रत्याख्यान विधि है। इस समय जो जीवन पर्यन्त आहार का त्याग किया जाता है, वह अनाकांक्ष अनशन तप है। इस प्रकार अनाकांक्ष तप प्रायोपगमनादि के भेद से तीन प्रकार का है। तीनों प्रकार के मरण का लक्षण स्वपरव्यापृतिरहितं मरणं प्रथमं द्वितीयमात्मभवम् । व्यापारयुतं चान्त्यं स्वपरव्यापारसंयुक्तम् ।।१०५।। अन्वयार्थ - प्रथमं - पहला प्रायोपगमनमरण । स्वपरव्यापृतिरहितं - स्व और पर की वैयावृत्ति से रहित है। द्वितीयं - दूसरा इंगिनीमरण । आत्मभवं = अपनी। व्यापारयुतं = वैयावृत्ति से युक्त। च = और। अन्त्यं - भक्त प्रत्याख्यान । स्वपरव्यापारसंयुतं - स्वपर के व्यापार से युक्त है। अर्थ - प्रायोपगमन मरण में न तो क्षपक अपनी वैयावृत्ति स्वयं करता है और न दूसरों से कराता है, न ही उसके मल-मूत्र होता है। वह समाधि ग्रहण करने के बाद गमनागमन नहीं करता तथा आहार भी ग्रहण नहीं करता। दूसरा इंगिनीमरण है, उसमें क्षपक स्वयं अपनी वैयावृत्ति करता है, आहार का भी क्रमश: त्याग करता है, मल-मूत्र भी करता है और उपदेश-आदेश भी देता है। भक्तप्रत्याख्यान मरण में क्षपक की वैयावृत्ति अन्य मुनि भी करते हैं और वह स्वयं भी करता है। इसमें भी आहार, नीहार, विहार आदि सारी क्रियायें होती हैं। इस काल में प्रायोपगमनमरण और इंगिनीमरण नहीं होते परन्तु भक्तप्रत्याख्यान मरण हो सकता है। ____ अधमौदर्य और रसपरित्याग तप का स्वरूप यत्साम्यशनं तत्स्यादवमौदर्यं तपः सुबहुभेदम् । रसरहितौदनभुक्ति नाभेदो रसत्यागः ॥१०६॥ अन्वयार्थ - यत् - जो। सामि - अझैदर। अशनं - भोजन करना । तत् - वह । सुबहुभेदं - बहुत भेद वाला। अवमौदर्य - अवमौदर्य । तपः - तप। स्यात् - होता है। रसरहितौदनभुक्तिः - घृत
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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