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________________ आराधनासमुच्चयम् १६६ यह सविचार भक्त प्रत्याख्यान अति साहसी पुरुष ही कर सकते हैं। अविचार भक्त प्रत्याख्यान का स्वरूप पराक्रमरहित मुनि को सहसा मरण उपस्थित होने पर अविचार भक्त प्रत्याख्यान करना योग्य है। वह तीन प्रकार का है - निरुद्ध, निरुद्धतर व परमनिरुद्ध । रोगों से पीड़ित होने के कारण जिसका जंघाबल क्षीण हो गया है और जो परगण में जाने को समर्थ नहीं है, वह मुनि निरुद्ध अविचार भक्तप्रत्याख्यान करता है। यह मुनि परगण में न जाकर स्वगण में ही रहता हुआ यथायोग्य पूर्वोक्त अर्थात् सविचार भक्तप्रत्याख्यान वाली विधि का पालन करता है। इसके दो भेद हैं, प्रकाश और अप्रकाश । जो अन्य जनों के द्वारा जाना जाय वह प्रकाश रूप भक्त प्रत्याख्यान है। क्षपक के मनोबल अर्थात् धैर्य, क्षेत्र, काल, उसके बान्धव आदि कारणों का विचार करके क्षपक के उस निरुद्धाविचार भक्तप्रत्याख्यान को प्रकट करते हैं अथवा अप्रगट रखते हैं अर्थात् अनुकूल कारणों के होने पर तो वह मरण प्रगट कर दिया जाता है और प्रतिकूल कारणों के होने पर प्रगट नहीं किया जाता। सर्प, अग्नि, व्याघ्र, भैंसा, हाथी, रीछ, शत्रु, चोर, म्लेच्छ, मूर्छा, तीव्र शूलरोग इत्यादि से तत्काल मरण का प्रसंग प्राप्त होने पर जब तक वचन व कायबल शेष रहता है और जब तक तीव्र वेदना से वित्त आकुलित नहीं होता; तब तक आयुष्य को प्रतिक्षण क्षीण होता जानकर शीघ्र ही अपने गण के आचार्य आदि के पास अपने पूर्व दोषों की आलोचना करनी चाहिए। इस प्रकार निरुद्धतर नाम के दूसरे अविचार भक्त प्रत्याख्यान का स्वरूप है। इसमें भी यथायोग्य पूर्वोक्त अर्थात् सविचार भक्त प्रत्याख्यान वाली सर्वविधि होती है। व्याघ्रादि उपर्युक्त कारणों से पीड़ित साधु के शरीर का बल और वचन बल यदि क्षीण हो जाये तो परम निरुद्ध नाम का मरण प्राप्त होता है। अपने आयुष्य को शीघ्र ही क्षीण होता जान वह मुनि शीघ्र ही मन में अर्हन्त व सिद्ध परमेष्ठी को धारण करके उनसे अपने दोषों की आलोचना करे। आराधना विधि का पूर्व में सविस्तार वर्णन किया है। इस प्रकार तीन प्रकार (प्रायोपगमन, इंगिनीमरण, भक्तप्रत्याख्यान) की सल्लेखना के समय यावज्जीवन आहार-पानी का त्याग करना सर्वानशन या अनाकांक्ष अनशन तप कहलाता है। __ इस तप में तीन प्रकार का मरण है। उसमें भक्त प्रत्याख्यान मरण श्रावक भी कर सकता है क्योंकि श्रावकों के व्रतों में सल्लेखना बारहवाँ व्रत है अर्थात् उपासकाध्ययन सूत्र में सल्लेखना नामक चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है। वसुनन्दी श्रावकाचार में लिखा है कि - रागद्वेष का त्याग, समताधारण, परिजनादि से क्षमायाचना कर तथा वस्त्र मात्र परिग्रह के सिवाय सारे परिग्रह का त्याग करके अपने ही घर में अथवा जिनालय में जाकर गुरु के समीप मन, वचन, काय से अपने दोषों की आलोचना करके पेय पदार्थ के सिवाय शेष सर्व खाद्य, स्वाद्य, लेह्य इन तीनों आहार का त्याग करता है, उसके उपासकाध्ययन में सल्लेखना नामक चतुर्थ शिक्षाव्रत कहा है। मृत्यु निकट है, ऐसा ज्ञात होने पर श्रावक भी स्नेह, वैर, परिग्रह को छोड़कर शुद्ध होता हुआ,
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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