________________
(२५) शय्या आराधक योग्य वसतिका ।
(२६) संस्तर
आराधक योग्य शय्या |
(२७) निर्यापक - सहायक आचार्य आदि ।
( २८ ) प्रकाशन अन्तिम आहार दिखाना ।
(२९) हानि क्रम से आहार का त्याग कराना।
(३०) प्रत्याख्यान जल के अतिरिक्त तीन प्रकार के आहार का त्याग ।
(३१) क्षमण आचार्य आदि से क्षमा की याचना । सर्व जीवों के साथ मैत्रीभाव, समता ।
(३२) क्षपणा प्रतिक्रमण आदि द्वारा कर्मों का क्षय करने का प्रयत्न ।
(३३) अनुशिष्टि आचार्य द्वारा क्षपक मुनि को उपदेश ।
(३४) सारणा - दुःखपीड़ित मोहग्रस्त साधु को सचेत करना । क्षपक को वैराग्योत्पादक उपदेश देना ।
(३५) कजच
( ३६ ) समता
जीवन-मरण, लाभ-अलाभ के प्रति उपेक्षा करना ।
( ३७ ) ध्यान
एकाग्रचिन्ता निरोध रूप ध्यान में लीन होना ।
(३८) लेश्या कषायानुरञ्जित योग प्रवृत्ति लेश्या में अशुभ लेश्या का त्याग कराना।
(३९) फल - आराधना से प्राप्त फल का कथन करना |
-
.
-
-
-
-
-
आराधनासमुच्चयम् ४ ९६२
( ४० ) शरीरत्याग आराधक का शरीरत्याग ।
उपर्युक्त ४० अधिकारों में सल्लेखना धारने की विधि का क्रम से व्याख्यान किया गया है।
सल्लेखना करने के लिए उद्यत हुआ क्षपक यदि आचार्य पदवी का धारक होगा तो उसको क्षपक की अवस्था में भी अर्थात् जब तक आयु का अन्त निकट न आ जावे तब तक अपने गण के हित की चिन्ता करनी चाहिए। आपकी आयु अभी कितनी रही है इसका विचार कर तदनन्तर अपने शिष्य समुदाय को और अपने स्थान में जिसकी स्थापना की है, ऐसे बालाचार्य को बुलाकर सौम्य तिथि, करण, नक्षत्र और लग्न के समय, शुभ प्रदेश में अपने गुण के समान जिसके गुण हैं, ऐसा वह बालाचार्य गच्छ का पालन करने के लिए योग्य है, ऐसा विचार कर उस पर अपने गण को विसर्जित करते हैं और उस समय उसे थोड़ा सा उपदेश भी देते हैं।
उस नवीन आचार्य को बुलाकर उसको गण के बीच में स्थापित कर और स्वयं अलग होकर बाल व वृद्ध आदि मुनियों से पूर्ण ऐसे गण से मन, वचन, काय से वे आचार्य क्षमा माँगते हैं। "हे मुनिगण !