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________________ आराधनासमुच्चयम् *१६३ तुम्हारे साथ मेरा दीर्घकाल तक सहवास हुआ है। मैंने ममत्व से, स्नेह से, द्वेष से, आपको कटु और कठोर वाक्य कहे होंगे। इसलिए आप सब मुझे क्षमा करेंगे, ऐसी आशा है। इस प्रकार अपने गण से पूछकर अपने रत्नत्रय में अतिशय प्रयत्न से प्रवृत्ति करने वाले वे आचार्य आराधना के निमित्त परगण में गमन करने की इच्छा मन में धारण करते हैं। स्वसंघ में रहने से आज्ञाकोप, कठोर वचन, कलह, दुःख, विषाद, खेद, निर्भयता, स्नेह, कारुण्य, ध्यानविघ्न और असमाधि ये दोष उत्पन्न होते हैं। जब आचार्य परगण में जाकर रहते हैं तब उस गणस्थ मुनियों को वे उपदेश आज्ञा करते नहीं, जिससे उनके द्वारा आज्ञाभंग का प्रसंग आता नहीं और यदि कदाचित् आज्ञाभंग हो भी जाय तो भी "इन पर तो मैंने कोई उपकार किया नहीं है जो ये मेरी आज्ञा मानें" ऐसा विचार कर उनको वहाँ असमाधि दोष उत्पन्न नहीं होता है अथवा अपने संघ में क्षुल्लकादि-मुनि-कलह, शोक, सन्तापादि परस्पर में करते हुए देखकर आचार्य की अपने गण पर ममता होने से चित्त की एकाग्रता नष्ट हो जायेगी। समाधिमरणोद्यत आचार्य को भूख-प्यास वगैरह का दुःख सहन करना चाहिए। परन्तु वे अपने संघ में रहकर निर्भय होकर आहार जल वगैरह पदार्थों की याचना करेंगे अथवा स्वयं आहारादि का सेवन करेंगे और भय व लज्जा रहित होकर छोड़ी हुई अयोग्य वस्तुओं को भी ग्रहण करेंगे। स्वगण में रहने वाले आचार्यों को ये दोष होंगे तथा जो आचार्य के समान उपाध्याय का प्रवर्त: मुनि हैं उन्हें मापा को रहने से ये दोष होंगे। परगण - निवासी को ये दोष नहीं होते हैं। इसलिए स्वगण को छोड़कर परगण में जाते हैं। संसारभीरु, पापभीरू और आगम के ज्ञाता आचार्य के चरण-कमलों में ही वह यति समाधिमरणोद्यमी होकर आराधना की सिद्धि करता है। यह क्षपक रत्नत्रयाराधना की क्रिया करने में उत्साही है या नहीं, इसकी परीक्षा करके अथवा मिष्ट आहार में यह अभिलषित है या विरक्त, इसकी परीक्षा करके ही आचार्य उसे अनुज्ञा देने का निर्णय करते हैं। इस क्षपक ने समाधि के लिए हमारे संघ का आश्रय लिया है। इसकी समाधि निर्विघ्न समाप्त होगी या नहीं, इस विषय का भी आचार्य शुभाशुभ निमित्तों से निर्णय कर लेते हैं। यह भी एक परीक्षा है। क्षपक विशेष आलोचना करके अथवा सामान्यालोचना करके मायाशल्य को हृदय से निकालकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरणों में शुद्धि की अभिलाषा रखता हुआ गुरु के द्वारा कहा हुआ प्रायश्चित्त रोष, दीनता और अश्रद्धान का त्याग कर ग्रहण करता है। सम्पूर्ण आलोचना सुनकर गुरु क्षपक को तीन बार उपाय सहित पूछते हैं। तब यदि यह क्षपक सरल परिणाम का है, ऐसा गुरु के अनुभव में आ जाय तो उसको प्रायश्चित्त देते हैं, अन्यथा नहीं। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से हुए सम्पूर्ण दोष क्षपक अनुक्रम से कहेगा तो प्रायश्चित्तदान-कुशल आचार्य उसको प्रायश्चित्त देते हैं। जिसका आचार निर्दोष है ऐसा वह क्षपक प्रायश्चित्त लेकर शास्त्रकथित विधि के अनुसार गुरु के समीप रहकर अपने को निर्मल चारित्रयुक्त बनाता हुआ रत्नत्रय में प्रवृत्ति करता है तथा समाधिमरण के लिए जिस विशिष्ट आचरण को स्वीकार किया है उसमें उन्नति की इच्छा करता
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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