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________________ आराधनासमुच्चयम् + १६१ उसके सर्वप्रथम ४० अधिकार हैं, जो निम्नांकित हैं - (१) अर्ह - अगले अधिकारों को धारण करने के योग्य व्यक्ति। (२) लिंग - शिक्षा, विनय आदि रूप साधनसामग्री के चिह्न । (३) शिक्षा - ज्ञानोपार्जन। (४) विनय - ज्ञानादि के प्रति विनय होना। (५) समाधि- मन की एकाग्रता । (६) अनियत विहार - अनियत स्थानों में रहना । (७) परिणाम - कर्त्तव्यपरायणता । (८) उपधित्याग - बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग। (९) श्रिति - शुभ परिणामों की उत्तरोत्तर वृद्धि करना। (१०) भावना - उत्तरोत्तर उत्तम भावनाओं का अभ्यास। (११) सल्लेखना - तत्त्वचिन्तनपूर्वक कषाय व शरीर का कृश करना। (१२) दिशा - अपने स्थान पर योग्य आचार्य की विधिपूर्वक स्थापना । (१३) क्षमणा - संघ से क्षमा की याचना करना। (१४) अनुशिष्टि - आगमानुसार उपदेश करना । (१५) परगणचर्या - अपना संध छोड़कर अन्य संघ में जाना। (१६) मार्गणा - समाधिमरण कराने में समर्थ आचार्य की खोज। (१७) सुस्थिति - परोपकारी तथा आचार्य पद योग्य कार्य करने में प्रवीण गुरु का आश्रय लेना। (१८) उपसंपदा - आचार्य के चरणमूल में गमन करना । (१९) परीक्षा - उत्साह, अभिलाषा, परिचारक गण आदि की परीक्षा करना। (२०) प्रतिलेखन या निरूपण - राज्य देश आदि का शुभाशुभ अवलोकन । (२१) पृच्छा - संघ से अनुग्रह की अनुज्ञा प्राप्त करना । (२२) एकसंग्रह - परिचारक मुनियों की स्वीकृतिपूर्वक एक आराधक का ग्रहण। (२३) आलोचना - गुरु के आगे अपने अपराध कहना। (२४) गुण-दोष - आलोचना के गुण-दोषों का वर्णन ।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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