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________________ आराधनासमुच्चयम् १६० परन्तु उपसर्ग की अपेक्षा इसको चल भी माना जाता है। उपसर्ग के वश होने पर अर्थात् किसी देव आदि के द्वारा उठाकर अन्यत्र ले जाये जाने पर स्वस्थान के अतिरिक्त यदि अन्य स्थान में मरण होता है तो उसको नीहार प्रायोपगमन मरण कहते हैं। कायोत्सर्ग को धारण कर कोई मुनि प्रायोपगमन मरण करते हैं और कोई दीर्घकाल तक उपवास कर इस मरण से शरीर का त्याग करते हैं। इंगिनीमरण - भक्तप्रतिज्ञा में जो प्रयोगविधि कही जायेगी वही यथासम्भव इस इंगिनीमरण में भी समझनी चाहिए। अपने गण को साधु आचरण के योग्य बनाकर इंगिनीमरण साधने के लिए परिणत होता हुआ पूर्व दोषों की आलोचना करता है तथा संघ का त्याग करने के पहले अपने स्थान में दूसरे आचार्य की स्थापना करता है। तत्पश्चात् बाल, वृद्ध आदि सभी गण से क्षमा के लिए प्रार्थना करता है। स्वगण से निकलकर अन्दर-बाहर से समान ऊँचे व ठोस स्थंडिल का आश्रय लेता है। वह स्थंडिल निर्जन्तुक पृथ्वी या शिलामयी होना चाहिए। ग्राम आदि से याचना करके लाये हुए तृण उस पूर्वोक्त स्थंडिल पर यत्नपूर्वक बिछाकर संस्तर तैयार करे जिसका सिराहना पूर्व और उत्तर दिशा की ओर रखे। तदनन्तर अर्हन्त आदिकों के समीप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में लगे दोषों की आलोचना करके रत्नत्रय को शुद्ध करे । सम्पूर्ण आहारों के विकल्पों का तथा बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का यावज्जीवन त्याग करे। कायोत्सर्ग से खड़े होकर, अथवा बैठकर का लेटकर, एक करवट पर पड़े हुए वे मुनिराज स्वयं ही अपने शरीर की क्रिया करते हैं। जगत् के सम्पूर्ण पुद्गल दुःख रूप या सुख रूप परिणमित होकर उनको दुःखी-सुखी करने को उद्यत होवें तो भी उनका मन ध्यान से च्युत नहीं होता। वे मुनि वाचना, पृच्छना, परिवर्तन और धर्मोपदेश इन सभी स्वाध्याय का त्याग करके सूत्रार्थ का अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं। इस प्रकार आठों पहरों में निद्रा का परित्याग करके वे एकाग्र मन से तत्त्वों का विचार करते हैं। यदि बलात् निद्रा आ गई तो निद्रा लेते हैं। स्वाध्याय काल और शुद्धि वगैरह क्रियाएँ उनको नहीं हैं। श्मशान में भी उनको ध्यान करना निषिद्ध नहीं है। यथाकाल षड़ावश्यक कर्म नियमित रूप से करते हैं। सूर्योदय व सूर्यास्त में प्रयत्नपूर्वक उपकरणों की प्रतिलेखना करते हैं। पैरों में काँटा चुभने और नेत्र में रज कण पड़ जाने पर मौन धारण करते हैं। तप के प्रभाव से प्रगटी वैक्रियिक आदि ऋद्धियों का उपयोग नहीं करते । मौन पूर्वक रहते हैं। रोगादि का प्रतिकार नहीं करते। किन्हीं आचार्यों के अनुसार वे कदाचित् उपदेश भी देते हैं। उपवास आदि की विधि भक्तप्रत्याख्यान के समान है जो आगे वर्णित है। भक्त प्रत्याख्यान वाला दूसरों से वैयावृत्ति कराता है, अपनी वैयावृत्ति स्वयं नहीं करता है, परन्तु इंगिनीमरण वाला अपनी वैयावृत्ति स्वयं ही करता है, दूसरे से नहीं कराता है। भक्त प्रत्याख्यान की विधि : भक्त प्रत्याख्यान मुनि और श्रावक के भेद से दो प्रकार का है। मुनिराज की भक्तप्रत्याख्यान की विधि इस प्रकार है - भक्त प्रत्याख्यान दो प्रकार है : सविचार और अविचार। सविचार भक्तप्रत्याख्यान की विधि इस प्रकार है -
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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