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________________ आराधनासमुच्चयम् - १५५ पूर्व कोटि की आयु वाला सम्मूर्छिम तिर्यंच सैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्त उत्पन्न होने के अन्तर्मुहर्त बाद वेदक सम्यक्त्व के साथ संयतासंयत संयम को प्राप्त कर सकता है इसलिए संयमासंयम का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम एक कोटि पूर्व होता है। अविरति के जघन्य और उत्कृष्ट काल का कथन, नाना जीवों की अपेक्षा सर्वसंयमी के काल का वर्णन अन्तर्मुहूर्तभङ्गत्रितयौ हीनोत्तमावविरतौ तु। नानाजीवापेक्षा सर्वाद्धा सूक्ष्मरहितेषु ।।१०१।। अन्वयार्थ - अविरती - अविरति का। हीनोत्तमौ - जघन्य और उत्कृष्ट काल। अन्तर्मुहर्तभंगत्रितयौ - अन्तर्मुहूर्त और तीन भंग वाला है। तु - परन्तु। नानाजीवापेक्षा - नाना जीवों की अपेक्षा। सूक्ष्मरहितेषु - सूक्ष्मसाम्पराय संयम को छोड़कर शेष संयमों का। अद्धा - काल। सर्वा - सदा है। अर्थ - अविरत सभ्यग्दृष्टि चार गुणस्थानों में होते हैं प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ गुणस्थान। प्रथम गुणस्थान में अविरति का काल तीन प्रकार का सादि सान्त, अनादि अनन्त और अनादि सान्त। अनादि अनन्त और अनादि सान्त का जघन्य और उत्कृष्ट भेद नहीं है। सादि सान्त मिथ्यात्व गुणस्थान सम्बन्धी अविरति का एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन है। सासादन सम्यादृष्टि में एक जीव की अपेक्षा अविरति का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह आवली प्रमाण है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि सम्बन्धी अविरति का एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। एक जीव के प्रति चतुर्थ गुणस्थान सम्बन्धी अविरति का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तैंतीस सागर प्रमाण है। जैसे उपशम श्रेणी वाला जीव मरकर एक समय कम तैंतीस सागर की आयु लेकर अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुआ, पुनः वहाँ से च्युत होकर पूर्वकोटि की आयु वाले मनुष्यों में पैदा होकर जीवन भर असंयम के साथ रहा। केवल जीवन का अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर संयम धारण कर सिद्धपर्याय को प्राप्त होता है। इस प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि के एक जीव की अपेक्षा अविरति का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि अधिक एक समय कम तैंतीस सागर प्रमाण है। नाना जीवों की अपेक्षा सूक्ष्म साम्पराय चारित्र को छोड़कर शेष छह प्रकार का संयम निरंतर रहता है। उसका सर्वकाल है अर्थात् कोई भी काल ऐसा नहीं है जो इन छह प्रकार के संयम से रहित हो। अतः १. सर्वार्थसिद्धि की टिप्पणी
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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