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आराधनासमुच्चयम् १५६
नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है। सूक्ष्मसाम्परायसंयम अन्तर सहित है। अतः इसका नाना जीवों की अपेक्षा वा एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
इस प्रकार चारित्राराधना का कथन किया है। क्योंकि सम्यक् चारित्र से ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को परिपूर्णता एवं निर्मलता प्राप्त होती है।
समता, माध्यस्थभाव, शुद्धोपयोग, वीतरागता, चारित्र, धर्म, आत्मस्वभाव की आराधना ये सब एकार्थवाची हैं। अत: चारित्र आराधना आत्मस्वभाव की आराधना है। क्योंकि आत्मस्वभाव में निरंतर आचरण करना ही चारित्र आराधना है ।
चारित्र ही वास्तव में धर्म है, वही साम्यभाव है और साम्य भाव मोह क्षोभ रहित आत्मा का स्वभाव है।
यह आराधना निश्चय और व्यवहार से दो प्रकार की है, निश्चय कार्य है और व्यवहार कारण है व्यवहार बीज है और निश्चय फल है, इन दोनों प्रकार की आराधना का कथन इसमें किया है। इस प्रकार चारित्राराधना का वर्णन पूर्ण हुआ ।
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४. सम्यक् तप आराधना
तप की परिभाषा और प्रकार
इन्द्रियमनसोर्दर्पप्रणाशकं वर्तनं तपो नाम । बाह्याभ्यन्तरभेदाद् द्विविधं तत्प्राहुरार्षज्ञाः ।। १०२ ।।
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अन्वयार्थ - इन्द्रियमनसोः इन्द्रिय और मन के दर्पप्रणाशकं दर्प का नाशक । वर्तनं प्रवृत्ति । तपः • तप । नाम - नाम से कहलाती है। तत् उस तप को । आर्षज्ञ: - आर्षग्रन्थों को जानने वाले ऋषियों ने । बाह्याभ्यन्तरभेदात् - बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से। द्विविधं दो प्रकार का । प्राहुः - कहा है।
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अर्थ - जिस क्रिया से इन्द्रिय और मन का दर्प या विकार नष्ट होता है, पाँचों इन्द्रियों के विषयों, चार कषायों तथा मन की अशुभ प्रवृत्तियों को रोककर शुभ वा शुद्ध भावों में मन को स्थिर किया जाता है, सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रों के धारक साधु के द्वारा जो कर्म रूपी मैल को दूर करने के लिए परम भाव स्वरूप परमात्मा में स्थिर रहने का प्रयत्न वा प्रवृत्ति की जाती है, उसको आर्ष के ज्ञाता ऋषियों ने तप कहा है।
नियम और तप ये पृथक् पृथक् नहीं हैं, अतः ज्ञानी मानव का यह कर्तव्य है कि वह नियम से युक्त होकर स्वकीय शक्ति अनुसार तप करे।