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________________ आराधनासमुच्चयम्-१४२ (३४२ = ६) (यहाँ वचन नहीं)। कृत-कारित-अनुमोदना = (६४३-१८) । पाँच इन्द्रिय (१८४५८९०)। द्रव्य-भाव (९०x२-१८०)। क्रोध, मान, माया, लोभ (१८०x४-७२०)। ये अचेतन स्त्री के आश्रित रहे। देवी, मनुमती, तिन्जी (३ प्रकार घेतान, श्री) - मन, वचन, काय (३४३=९) कृत-कारित-अनुमोदना (९४३-२७)। पंचेन्द्रिय (२७४५% १३५) । द्रव्य-भाव (१३५४२-२७०)। चार संज्ञा (२७०x४-१०८०)। सोलह कषाय (१०८०४१६-१७२८०)। इस प्रकार चेतन स्त्री के आश्रित १७२८० भेद कहे। कुल मिलाकर (७२०+१७२८०८) शील के १८००० भेद होते हैं। गुणों का कथन करते हैं - जो द्रव्य को द्रव्यान्तर से पृथक् करता है, भेद करता है, सम्पूर्ण पर्याय में व्याप्त होकर रहता है उसको गुण कहते हैं। यहाँ पर जो मुनि और श्रावक में भेद करते हैं, उनको पृथक् करते हैं, वे गुण कहलाते जैसे श्रावक के आठ मूल गुण और १२ उत्तर गुण होते हैं, उसी प्रकार मुनिराज के छेदोपस्थापना चारित्र में २८ मूल गुण और चौरासी लाख उत्तर गुण होते हैं। वे इस प्रकार हैं। पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, केशलोंच, षट् आवश्यक, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधोवन, खड़ेखड़े भोजन, एक बार आहार ये वास्तव में श्रमणों के २८ मूलगुण जिनवर ने कहे हैं। भावार्थ - पाँच पाप, चार कषाय, जुगुप्सा, भय, रति, अरति ये १३ दोष हैं + मन वचन काय की दुष्टतायें ३ + मिथ्यात्व, प्रमाद, पिशुनत्व, अज्ञान, पाँच इन्द्रियों का निग्रह ये पाँच - इन २१ दोषों का त्याग २१ गुण हैं। ये उपर्युक्त गुण x अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार ये चार - पृथ्वी आदि १० जीव समास x १० शील विराधना x १० आलोचना के दोष x १० धर्म, दश प्रकार की शुद्धि x १० संयम इनको परस्पर गुणा करने पर = ८४,००,००० उत्तर गुण होते हैं। यद्यपि अतिक्रम और अतिचार एक ही है क्योंकि समन्तभद्राचार्य ने अतिचार के बदले में व्यतिक्रम, व्यतिलंघन अतिगम, व्यतिनयादि शब्द का प्रयोग किया है। राजवार्त्तिक में भी अतिचार के स्थान पर अतिक्रम शब्द का प्रयोग किया है । तथापि कथंचित् अतिक्रम और अतिचार में भेद भी है। मन की शुद्धि की हानि अतिक्रम है। विषयों की अभिलाषा व्यतिक्रम है। किसी कारणवश व्रतों में शिथिलता आना अतिचार है और व्रतों का सर्वथा भंग हो जाना या विषयों में अति आसक्ति होना अनाचार है। "दर्शनमोह के उदय से तत्त्वार्थ श्रद्धान से विचलित होना अतिचार है। इसका दूसरा नाम अतिक्रम भी है"। (राजवार्तिक) व्रतों का एक अंश भंग होने को भी अतिचार कहते हैं। इस प्रकार अतिचार, अनाचार, अतिक्रम और व्यतिक्रम के द्वारा पाँच पाप आदि २१ भेदों को गुणा करने पर ८४ भेद होते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति के साधारण और प्रत्येक दो भेद, दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय इन दश जीवसमास से गुणा करने पर ८४० भेद होते हैं।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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