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________________ आराधनासमुच्चयम् १४१ उपेक्षा संयम और अपहृत संयम, इनको वीतराग व सराग संयम भी कहते हैं, ये दोनों शुद्धोपयोगियों के ही होते हैं। अपवाद, व्यवहारनय, एकदेशपरित्याग, अपहुत संयम, सराग चारित्र, शुभोपयोग ये सब शब्द एकार्थवाची हैं तथा उपसर्ग, निश्चय, सर्वपरित्याग, परमोपेक्षा संयम, वीतराग चारित्र, शुद्धोपयोग ये सब शब्द एकार्थवाची हैं। अपहृत संयम दो प्रकार का है - इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम। इस अपहृत संयम में भाव, वचन, काय, विनय आदि के भेद से आठ शुद्धियों का उपदेश है। ___ पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श, षड्ज आदि सात स्वर और मन ये २८ इन्द्रियविषय हैं। इनका निरोध सो इन्द्रियसंयम है और चौदह प्रकार के जीवों की रक्षा करना सो प्राणिसंयम है। इन्द्रियों द्वारा जो अर्थविषयक ज्ञान होता है वह असंयम नहीं है, बल्कि उन विषयों में रागवृद्धि न होना इन्द्रियसंयम है और इसी प्रकार त्रस व स्थावर जीवों में से किसी के भी वध के लिए मन, वचन व काय का उद्यत न होना सो प्राणिसंयम है। पृथ्वी, अप्, तेज, वायु व वनस्पति ये पाँच स्थावरकाय और दो, तीन, चार व पाँच इन्द्रिय वाले चार त्रस जीव इनकी रक्षा रूप प्राणिसंयम ९ प्रकार है, सूखे तृण आदि का छेदन न करना ऐसा १ भेद अजीव काय की रक्षा रूप है। अप्रतिलेखन, दुष्प्रतिलेखन, उपेक्षा संयम, अपहृत संयम, मन, वचन व काय संयम, इस प्रकार कुल मिलाकर १७ संयम होते हैं। (यहाँ पीछी से द्रव्य का शोधन सो प्रतिलेखन संयम है और प्रमाद सहित यत्नपूर्वक शोधन दुष्प्रतिलेखन संयम है।) प्रकृति, शील, स्वभाव ये सर्व शब्द एकार्थवाची हैं। शील आत्मा का स्वभाव है। निश्चय नय से आत्मस्वरूप में लीन रहना, पर-पदार्थों से निवृत्त होना ही शील है। व्यवहार नय से पंचेन्द्रिय के विषयों से विरक्त होना शील कहलाता है। जिसके द्वारा व्रतों की रक्षा की जाय उसको शील कहते हैं। शील की दो प्रकार से प्ररूपणा है। एक तो स्वद्रव्य-परद्रव्य के विभाग अपेक्षा है और दूसरी स्त्री के संसर्ग की अपेक्षा है। तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पाँच इन्द्रिय, दस पृथ्वी आदिक काय, दस मुनिधर्म इनको आपस में गुणा करने से अठारह हजार शील होते हैं। मन, वचन, काय का शुभकर्म के ग्रहण करने के लिए व्यापार (वह) योग है और अशुभ के लिए प्रवृत्ति वह करण है। आहारादि चार संज्ञा हैं, स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियाँ हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चोइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ये पृथ्वी आदि दस हैं। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य ये १० मुनिधर्म हैं। इनको परस्पर गुणा करने से स्वद्रव्य और परद्रव्य के विभाग की अपेक्षा शील के १८००० भेद होते हैं। स्त्रीसंसर्ग की अपेक्षा - काष्ठ, पाषाण, चित्राम (३ प्रकार अचेतन स्त्री) x मन और काय =
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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