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आराधनासमुच्चयम् १४०
निष्क्रिय आत्मा के शुद्ध स्वात्मा की उपलब्धि वा सर्व क्रियान्तरों से निवृत्ति तथा अभेद रत्नत्रय की प्राप्ति ही निश्चय संयम है।
बाह्य में पंच महाव्रत का धारण, पंच समिति का पालन, पाँच इन्द्रियविषयों की अभिलाषाओं का त्याग करना, चारों कषायों का निग्रह करना और मन, वचन, काय रूप तीन योग की चंचलताओं का निरोध करना व्यवहार संयम है। यह व्यवहार संयम निश्चय संयम का साधन है।
औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से व्यवहार संयम तीन प्रकार का है।
नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से संयम चार प्रकार का है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म सांपराय और यथाख्यात के भेद से पाँच प्रकार का है। इनका लक्षण चारित्र के प्रकरण में किया है।
श्रावक का संयम और मुनिराज का संयम, इस तरह संयम दो प्रकार का है, जिनका कथन व्रतों के प्रकरण में किया है।
प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम के भेद से संयम दो प्रकार का है। पाँच प्रकार का रस, आठ स्पर्श, दो गंध, पाँच वर्ण और षड्ज आदि सात स्वर इन २८ प्रकार के पंचेन्द्रिय विषयों से मन को रोकना इन्द्रियसंयम है और १४ प्रकार के जीवों की रक्षा करना प्राणिसंयम है।
अनादि काल से इस जीव ने रसना और स्पर्श इन्द्रिय के वर्शीभूत होकर अनेक दुःख भोगे हैं, अतः चार अंगुल प्रमाण स्पर्शनेन्द्रिय और चार अंगुल प्रमाण जिह्वेन्द्रिय का निरोध कर के संयम धारण करना चाहिए | जिह्वा इन्द्रिय के वश होने पर सारी इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं।
मुनियों का चारित्र आचारांग आदि चारित्र विषयक ग्रन्थों में कथित मार्ग से, प्रमत्त व अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों के योग्य पंच महाव्रत, पंच समिति, त्रिगुप्ति, छह आवश्यक आदि रूप होता है और गृहस्थों का चारित्र 'उपासकाध्ययन' आदि ग्रन्थों में कथित मार्ग से, पंचम गुणस्थान के योग्य दान, शील, पूजा, उपवास आदि रूप होता है। मुनिसंयम के दो भेद हैं- एक उपेक्षा संयम और दूसरा अपहृत संयम | देश और काल के विधान को समझने वाले, स्वाभाविक रूप से शरीर से विरक्त और तीन गुप्तियों के धारक व्यक्ति के राग और द्वेष रूप चित्तवृत्ति का न होना उपेक्षा संयम है। अपहृत संयम उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीनप्रकार का है। प्रासुक वसति और आहार मात्र है बाह्य साधन जिनके तथा स्वाधीन है ज्ञान और चारित्र रूप करण जिनके ऐसे साधु का बाह्य जन्तुओं के आने पर उनसे अपने को बचाकर संयम पालना उत्कृष्ट अपहृत संयम है। मृदु उपकरण से जन्तुओं को बुहार देने वाले के मध्यम और अन्य उपकरणों की इच्छा रखने वाले के जघन्य अपहृत संयम होता है।
यह अपहृतसंयमियों के संयम-ज्ञानादिक के उपकरण लेते, रखते समय उत्पन्न होने वाली समिति का प्रकार कहा है । उपेक्षा संयमियों के पुस्तक, कमण्डलु आदि नहीं होते, वे परम जिनमुनि एकान्त में निस्पृह होते हैं, इसलिए वे बाह्य उपकरण रहित होते हैं।