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________________ आराधनासमुच्चयम् ११३२ दुःश्रुति - कामोत्पादक, संक्लेशकारी कथाओं का पढ़ना-सुनना । इन सब निष्प्रयोजन क्रियाओं का त्याग अनर्थदण्ड-त्याग व्रत है। • भोगोपभोग परिमाण - एक बार भोगने योग्य आहारादि भोग कहलाते हैं। जिन्हें पुन:पुनः भोगा जा सके ऐसे वस्त्र, स्त्री आदि उपभोग कहलाते हैं। इच्छाओं पर नियन्त्रण के लिए भोगोपभोग सामग्री की मर्यादा बाँध लेना भोगोपभोग परिमाण व्रत है। ये तीन गुणव्रत कहलाते हैं। शिक्षाप्रत - प्रथम सामायिक, द्वितीय प्रोषधोपवास, तृतीय अतिथिपूजा और चतुर्थ अन्त में सल्लेखना-मरण है। तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डनावकाचारादि ग्रन्थों में देशविरति, सामायिक, प्रोषध और अतिथिसंविभाग ये चार शिक्षाव्रत कहे हैं। सल्लेखना-मरण को पृथक् कहा है। पद्मचरित्र, आदिपुराण, हरिवंशपुराण में सल्लेखना व्रत को चतुर्थ व्रत कहा है। भोगोपभोग परिमाण को देशव्रत में और कहीं देशविरत को भोगोपभोग परिमाण में गर्भित किया है। अत:देशविरत को न कहकर चतुर्थव्रत सल्लेखना को कहा है। शिक्षाव्रत का लक्षण बहुत कम मिलता है। आशाधर जी ने लिखा है कि शिक्षाप्रधान होने से या नियत काल के लिए होने से ये शिक्षाव्रत कहलाते हैं। जैसे दिग्वत जीवनपर्यन्त के लिए होने से गुणव्रत और नियतकाल के लिए होने से देशवरा, शिक्षावित है। सामायिक व्रत - समय का अर्थ है एकत्व रूप से गमन अर्थात् मन, वचन, काय की क्रियाओं से निवृत्त होकर एक आत्मद्रव्य में लीन होना। अथवा चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति और अन्त में समाधि भक्ति, मध्य में दो कायोत्सर्ग, चार आवर्त, तीन शिरोनति तथा दो नमस्कार रूप क्रिया को दिन में एक बार, दो बार और तीन बार करना सामायिक शिक्षाव्रत है। तीसरी प्रतिमाधारी त्रिकाल सामायिक करता है और दूसरी प्रतिमाधारी दो बार या एक बार भी कर सकता है। प्रोषधवत - प्रोषध का अर्थ पर्व या एक बार भोजन करना है। यह अष्टमी और चतुर्दशी के दिन किया जाता है क्योंकि इन दोनों तिथियों को पर्व कहते हैं। यह व्रत उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार का है। खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकार के आहार का पर्व के दिन त्याग करना उत्कृष्ट प्रोषध है। पानी के सिवाय सबका त्याग करना मध्यम और एकासन या आचाम्ल (पानी, भात आदि खाना) करना जघन्य प्रोषध है। अतिथिपूजा - जिनके आने की प्रतिपदा आदि तिथि नियत नहीं है, उन्हें अतिथि कहते हैं, अथवा जो संयमलाभ के लिए भ्रमण करते हैं, उदण्डचर्या (व्रतपरिसंख्यान) करते हैं वे अतिथि कहलाते हैं। उन अतिथियों को पूजा-सत्कार, नवधाभक्ति और सात गुण सहित आहारदान करना अतिथिपूजा है। मुनियों को आते देखकर उन्हें आदरपूर्वक 'स्वामिन् ! अत्र तिष्ठ-तिष्ठ' कहकर पड़गाहन करना। उनके ठहर जाने के बाद घर में ले जाकर उच्चासन देना। उनके चरणों का प्रासुक जल से प्रक्षालन करना |
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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