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________________ आराधनासमुच्चयम् १३१ अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ये पाँच स्थावर कहलाते हैं, जो अपनी इच्छानुसार चल-फिर नहीं सकते। निरपराध त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा का त्याग करना अहिंसाणुव्रत कहलाता सत्याणुव्रत - स्थूल असत्य बोलने का सर्वथा त्याग करना । यद्यपि स्थूल और सूक्ष्म असत्य की निश्चित परिभाषा देना कठिन है तथापि जिस असत्य भाषण से मानव झुटा कहलाता है. जो लोकनिन्दनीय और राजदण्डनीय है ऐसे स्थूल असत्य बोलने का त्याग करना सत्याणुव्रत कहलाता है। स्थूल चोरी का परिहार - मालिक की आज्ञा बिना किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करना - चाहे गिरी हुई भी क्यों न हो, अचौर्याणुव्रत कहलाता है। परदारपरिहार - पाप के भय से दूसरे की स्त्री का सेवन नहीं करना और न दूसरों को सेवन करने की आज्ञा देना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। परिग्रह आरम्भ परिमाण - धन-धान्य, दासी-दास आदि १० प्रकार के बाह्य परिग्रह की सीमा बाँधना और सेवा, कृषि, वाणिज्य आदि जो धनोपार्जन के साधन रूप आरम्भ हैं उनकी भी मर्यादा करना क्योंकि कृषि आदि बाह्य परिग्रह के कारण हैं, साधन हैं। कारण की सीमा बाँधे बिना कार्य की सीमा नहीं हो सकती। अत: कुन्दकुन्दाचार्य ने परिग्रह और आरम्भ दोनों का परिमाण करने को परिग्रह परिमाणाणुव्रत कहा है। ये एकदेशरूप पालन किये जाते हैं, इसलिए इन्हें अणुव्रत कहते हैं। __ जिनसे अणुव्रतों की संपुष्टि, वृद्धि और रक्षा होती है, उन्हें गुणव्रत कहते हैं - दिग्विरति, अनर्थदण्डत्यागवत और भोगोपभोगपरिमाण के भेद से तीन प्रकार का है। • दिशिविदिशि परिमाणव्रत (दिग्वत) दिशाओं और विदिशाओं में गमनागमन की मर्यादा करना। अर्थलोलुपी मानव तृष्णा के वश होकर विभिन्न देशों में परिभ्रमण करता है। मनुष्य की इस निरंकुश तृष्णा को नियन्त्रित करने के लिए दिग्वत का विधान है। • अनर्थदण्डत्यागवत - 'बिना प्रयोजन की मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को रोकना। विवेकशून्य मानव पाँच प्रकार की योग सम्बन्धी प्रवृत्तियों से व्यर्थ ही पाप उपार्जन करता है। हिंसादान - हिंसा के साधन तलवार आदि का निर्माण करके दूसरे को देना। पापोपदेश - पापजनक कार्यों का उपदेश देना। प्रमादचर्या - निष्प्रयोजन गमनागमन करना, पृथ्वी खोदना, पानी गिराना आदि। अपध्यान - दूसरों का बुरा विचारना ।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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