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________________ आराधनासमुच्चयम् ०१३० यदि यहाँ पर संयम के किसी एक भेद की मुख्यता होती तो सावधयोग का प्रयोग नहीं होता। क्योंकि सभी चारित्र में मुख्य रूप से साक्द्ययोग की निवृत्ति है। सावद्ययोगनिवृत्ति के बिना चारित्र का प्रारंभ भी नहीं होता। इससे यह सिद्ध होता है कि जिसने सम्पूर्ण व्रत, समिति, गुप्ति आदि भेदों का संग्रह कर लिया है, अपने अन्तर्गत कर लिया है उस यम को सामायिक चारित्र कहते हैं। अर्थात् सम्पूर्ण व्रतों को सामान्य की अपेक्षा एक पानता एक, नको हा करने वाला होने से (द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा एक है) सामायिक चारित्र का पालन करने वाला ही समिति और गुप्तियों का पालन कर सकता है अत: सामायिक चारित्र कारण है और समिति, गुप्ति आदि उसका कार्य है। छेदोपस्थापना चारित्र का लक्षण व्रतसमितिगुप्तिसंयमशीलगुणादिकविकल्पसंयुक्ताम् । विरतिं वदन्ति सन्तश्छेदोपस्थापनाचरितम् ॥८८।। अन्वयार्थ - व्रतसमितिगुप्तिसंयमशीलगुणादिकविकल्पसंयुक्तां - व्रत, समिति, गुप्ति, संयम, शील गुणादि विकल्पों से संयुक्त । विरतिं - विरति को। सन्तः - सन्त लोग। छेदोपस्थापनाचरितं - छेदोपस्थापना चारित्र। वदन्ति - कहते हैं। अर्थ – हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों का सर्वथात्याग करना व्रत कहलाता निश्चय नय की अपेक्षा विशुद्ध ज्ञान, दर्शन रूप स्वभाव के धारक निज आत्म तत्त्व की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत के आस्वादन के बल से सारे शुभ एवं अशुभ विकल्पों से रहित होना व्रत है। अथवा विभाव भावों से रहित होकर स्वकीय आत्मा में प्रवृत्ति करना व्रत है। रागादिक का नाम ही हिंसा, अधर्म और अव्रत है और रागादिक का त्याग ही व्रत, धर्म और अहिंसा है। सकल और विकल के भेद से वह व्रत दो प्रकार का है। सकल चारित्र दिगम्बर मुनिराज के होता है और विकल चारित्र श्रावक के होता है। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत के भेद से विकल चारित्र १२ प्रकार का है। पाँच अणुव्रत - स्थूल त्रसकाय के वध का, स्थूल असत्य का, स्थूल चोरी का और परस्त्री का त्याग करना तथा परिग्रह और आरम्भ का परिमाण करना पाँच अणुव्रत है। अहिंसाणुव्रत - स्थूल त्रसकाय के घात का परिहार । संसार में जीव दो प्रकार के हैं - उस और स्थावर। सुख-दुःख का प्रसंग आने पर जो अपनी इच्छा के अनुसार दूसरी जगह जा सकते हैं, चलते-फिरते हैं ऐसे दो इन्द्रिय, त्रि-इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव त्रस कहलाते हैं। पृथिवीकाय, जलकाय,
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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