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________________ आराधनासमुच्चयम् १२३ असद्भूत व्यवहार नय भी उपचरित और अनुपचरित के भेद से दो प्रकार का है। एकक्षेत्रावगाही (होने वाले) पदार्थों को एकरूप कहना अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय का विषय है जैसे शरीर मेरा है। यद्यपि आत्मा और शरीर में अत्यन्त भिन्नपना है तथापि अनादि काल से एकक्षेत्रावगाही है इसलिए उपचरित असद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा आत्मा का कहा जाता है। प्रत्यक्ष पृथक् दृष्टिगोचर होने वाले पदार्थों को अपना कहना उपचरित असद्भूत व्यवहार नय का विषय है जैसे घर, पुत्र-पौत्रादिक मेरे हैं। घर, पुत्रादि के आत्मा से अत्यन्त भिन्नपना है। एकक्षेत्रावगाहीपना भी नहीं है तथापि सम्बन्ध की अपेक्षा आत्मा के कहे जाते हैं। यह नय भेद में अभेद को ग्रहण करता है। नयों की उपयोगिता - वस्तु अनेक धर्मात्मक है। उसकी सिद्धि नय के द्वारा होती है क्योंकि नयवाद में अनन्त धर्मों के अखण्ड पिण्ड रूप वस्तु के किसी एक धर्म की प्रधानता देकर कथन किया जाता है, उस वस्तु में शेष धर्म विद्यमान तो रहते हैं, परन्तु उस समय वे गौण हो जाते हैं। दिव्यज्ञानी भगवान महावीर ने तत्त्वविचार की एक प्रौलिक और अतिशय दिव्यज्योति नगत को प्रदान की है। इतना ही नहीं, उन्होंने वस्तु के सर्वाङ्गीण स्वरूप को समझाने के लिए एक सापेक्ष भाषा पद्धति भी दी है। सर्वज्ञ ने कहा है कि विचार अनेक हैं और बहुत बार वे परस्पर विरोधी भी प्रतीत होते हैं, परन्तु उनमें सामंजस्य करके अविरोध रूप प्रतीति कराने वाला नय है और अविरुद्ध रूप से जानने वाला ही तत्त्वदर्शी है। वस्तु के परस्पर विरोधी अनेक धर्मों में अविरोध का आधार वस्तु का अनेक धर्मात्मक होना है। हम जिस रूप में वस्तु को देख रहे हैं, उसका स्वरूप उतना ही नहीं है, हमारी दृष्टि सीमित है, परन्तु वस्तु का स्वरूप विराट् है। प्रत्येक वस्तु अनन्तानन्त अंश, धर्म, गुण और शक्तियों की पिण्ड है। जो अनन्त धर्म वस्तु में सत् रूप से विद्यमान हैं, वे वस्तु के सहभावी धर्म कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक पदार्थ द्रव्यशक्ति की अपेक्षा नित्य होने पर भी पर्याय शक्ति की अपेक्षा क्षण-क्षण में परिवर्तनशील है। ये पर्यायें एक-दो नहीं अनन्त हैं और वे भी पदार्थ के अभिन्न अंश हैं। ये अंश क्रमभावी धर्म कहलाते हैं, सहभाविनो गुणाः, क्रमभाविनःपर्यायाः । इस प्रकार अनन्त सहभावी धर्म और अनन्त क्रमभावी पर्यायों का समूह एक वस्तु है। परन्तु वस्तु का वस्तुत्व इतने में समाप्त नहीं होता है, वह वस्तु इससे भी विशाल है। जैसे सिक्के के दो बाजू होते हैं और दोनों बाजू मिलकर ही पूरा सिक्का बनता है, उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ सत्ता और असत्ता इन दोनों अंशों के समुदाय से बना है, पहले जिन धर्मों और पर्यायों का उल्लेख किया है, वह तो केवल सत्ता रूप अंश है, असत्ता रूप अंश तो और भी विशाल है तथा वह असत्ता भी वस्तु का अंश है। उदाहरण - जैसे एक आम हमारे सामने है। हम आम का वर्ण और आकार मात्र ही देख सकते हैं। जब हम आम को हाथ में लेंगे तो हमको आम के कुछ अधिक धर्म प्रतीत होंगे। उसका गुरुत्व, स्निग्धत्व प्रतीत होगा परन्तु इतने मात्र से भी आम का पूरा ज्ञान नहीं हुआ। आम का पूरा स्वरूप समझने के लिए हमको किसी तत्त्वज्ञानी की
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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