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________________ आराधनासमुच्चयम् .. १२२ जहाँ पर पूर्व-पूर्व नय प्रवृत्ति करते हैं, उस अंश में उत्तरोत्तर नय भी प्रवृत्ति करते हैं। जैसे हजार, आठ सौ, पाँच सौ आदि संख्या में आगे की संख्या भी रहती है अर्थात् हजार की संख्या में आठ सौ और आठ सौ में पाँव हार्भित है। यद्यपि यहाँ पर सात हो नया का वर्णन है परन्तु नयों का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। जितने वचन हैं उतने ही नय हैं । वचन असंख्यात हैं इसलिए नय भी असंख्यात हैं। ये सभी नय परस्पर सापेक्ष होकर ही वस्तु के निर्णय में और सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में कारण होते हैं, जैसे परस्पर सापेक्ष तन्तु वस्त्र रूप परिणत होकर लज्जा, शीतादि का निवारण करने में समर्थ होते हैं। जिस प्रकार पृथक्-पृथक् रहकर तन्तु लज्जा, शीत-निवारणादि कार्य नहीं कर सकते हैं, उसी प्रकार परस्पर निरपेक्ष नय भी अर्थक्रिया नहीं कर सकते हैं। जैसे शक्ति की अपेक्षा तन्तुओं में वस्तु की लज्जा शीतनिवारण रूप अर्थक्रिया का सद्भाव माना जाता है वैसे ही निरपेक्ष नयों में भी सम्यग्दर्शन की अंगता (कारणता) शक्तिरूप से है परन्तु अभिव्यक्ति सापेक्ष दशा में होगी। अध्यात्म भाषा की अपेक्षा नयों के भेद - अध्यात्म भाषा की अपेक्षा नय के मूल भेद दो हैं १. निश्चय और २, व्यवहार "निश्चयमिहभूतार्थव्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थः ।" निश्चय नय भूतार्थ है और व्यवहार नय अभूतार्थ है। व्यवहार नय पराश्रित तथा पर्यायाश्रित है और निश्चय नय स्वाश्रित (द्रव्याश्रित) है। अभेद रूप अखण्ड वस्तु को ग्रहण करने वाता निश्चय नय है और अभेद में भेद और भेद में अभेद को ग्रहण करने वाला व्यवहार नय है। निश्चय नय भी शुद्ध निश्चय नय और अशुद्ध निश्चय नय के भेद से दो प्रकार है। निरुपाधि शुद्ध गुण-गुणी में अभेद करके कथन करना शुद्ध निश्चय नय है, जैसे-जीव केवल-ज्ञानादिगुण स्वरूप है। सोपाधिक गुण-गुणी में अभेद रूप से कथन करना अशुद्ध निश्चय नय है। जैसे जीव मतिज्ञानादि गुण वा रागद्वेषादि विकार भावरूप है। व्यवहार नय भी सद्भूत और असद्भूत के भेद से दो प्रकार का है। एकवस्तुविषय सद्भूत व्यवहार नय है, भिन्नवस्तु विषय असद्भूत व्यवहार नय है। सद्भूत व्यवहार नय भी उपचरित और अनुपचरित के भेद से दो प्रकार का है। सोपाधिक गुण-गुणी में भेद करके कथन करना उपचरित सद्भूत व्यवहार नय है जैसे मतिज्ञानादि गुण वा रागद्वेषादि विकार भाव आत्मा के हैं। निरुपाधिक गुण-गुणी में भेद करके कथन करने वाला अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय है जैसे आत्मा के केवलज्ञानादि गुण हैं। यद्यपि अशुद्ध निश्चय नय और उपचरित सद्भूत व्यवहार नय का विषय तथा शुद्ध निश्चय नय और अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय का विषय एक सरीखा प्रतीत होता है, तथापि उनमें भिन्नता है क्योंकि निश्चय नय गुण-गुणी में अभेद ग्रहण करता है। वह कहता है - आत्मा केवलज्ञान स्वरूप वा अशुद्ध निश्चय नय से रागादि विभाव रूप है। अनुपचरित सद्भूत व्यवहार कहता है - आत्मा में केवलज्ञान, दर्शन आदि गुण हैं तथा उपचरित व्यवहार नय से रागादि विभाव भी आत्मा में हैं इसलिए व्यवहार नय गुण-गुणी (अभेद) में भेद ग्रहण करता है इसलिए भेदात्मक है और निश्चय नय अभेदात्मक होने से गुण-गुणी को (अभेद) ग्रहण करता है। यह सद्भूत व्यवहार नय परमार्थ का वाचक है। इसके बिना परमार्थ का कथन करना शक्य नहीं है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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