SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आराधनासमुच्चयम् १२१ नैगम, संग्रह और व्यवहार नय ये तीनों नित्यवादी हैं क्योंकि तीनों नय का विषय पर्याय नहीं है अतः इनके विषय में सामान्य और विशेष काल का अभाव है। ऋजुसूत्र नय, शब्द नय, समभिरूढ़ नय और एवंभूत नय में पूर्व-पूर्व नय सामान्य रूप से और उत्तरोत्तर नय विशेष रूप से वर्तमान कालवी पर्यायों का विषय कहते हैं। अथवा, अर्थनय और व्यञ्जननय के भेद से भी नय दो प्रकार के हैं। नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चारों नय अर्थ नय हैं तथा शब्द, समभिरूढ़ आदि व्यंजन नय हैं। "जो वस्तु के स्वरूप का स्वधर्म के भेद से भेद करता है, वह अर्थ नय है। अथवा जो वस्तु का अभेदक है, अभेद रूप से वस्तु को ग्रहण करता है वा अभेद रूप से वस्तु को प्राप्त होता है वह अर्थनय है।" जन. ध. अ. पृ. २७। अत: अभेद रूप से अर्थ को ग्रहण करने वाले होने से वा उनमें कालकृत भेद नहीं होने से नैगम नय, संग्रह नय और व्यवहार नय ये अर्थनय हैं। अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय के भेद से पर्याय दो प्रकार की है। उसमें क्षणवर्ती अर्थपर्याय को ग्रहण करने वाला होने से ऋजुसूत्र नय अर्थनय है। "व्यंजन (शब्द) के भेद से वस्तु में भेद का निश्चय करने वाले नय व्यंजन नय कहलाते हैं।" इन सातों नयों में ऋजुसूत्र नय पर्यन्त चार नय अर्थप्रधान हैं और शब्द नय, समभिरूढ़ नय और एवंभूतनय शब्द प्रधान हैं। पूर्व-पूर्व नय का विषय बहुत है और आगे-आगे के नय का विषय अल्प है। जैसे संग्रहनय से नैगमनय का विषय बहुत है। क्योंकि नैगमनय सद् (भाव), असद् (अभाव) दोनों को विषय करता है इसलिए जितने विद्यमान पदार्थों में संकल्प हैं उतने ही अविद्यमान पदार्थों के संकल्प होते हैं। संग्रहनय का विषय नैगमनय की अपेक्षा अल्प हैं क्योंकि संग्रह सामान्य सत्ता का ग्राहक है और व्यवहार नय उसके विशेष भेदों का अवबोधक है। इसलिए यह अल्प विषय वाला है। काल, लिंग, संख्या, कारक, साधन और उपसर्ग से भेद को ग्रहण करने वाला होने से ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा शब्द का विषय अल्प है। पर्याय के भेद से अर्थभेद को स्वीकार करने वाला होने से समभिरूढ़ का विषय शब्द नय की अपेक्षा अल्प है क्योंकि शब्द नय से समभिरूढ़ विशेष सूक्ष्म है। क्रिया के भेद से अर्थभेद को स्वीकारने वाला होने से समभिरूद नय की अपेक्षा एवंभूत नय का विषय अल्प है क्योंकि यह क्रियाप्रधान है। पूर्व-पूर्व का नय कारण है और आगे-आगे का नय कार्य है क्योंकि पूर्वनयपूर्वक ही आगे के नय की उत्पत्ति होती है। जैसे नैगमनय कारण है और संग्रहनय कार्य है। संग्रह नय से गृहीत अर्थ का भेद करने वाला होने से संग्रह नय कारण है और व्यवहार नय कार्य है। इस प्रकार आगे के नयों को भी समझना चाहिए।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy