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________________ आराधनासमुच्चयम् १२० संख्या की अपेक्षा भेद - जैसे आप बहुवचनान्त है; जल, नीर एक वचनान्त है, व्याकरण इन दोनों का अर्थ जल स्वीकार करता है परन्तु शब्द नय इन दोनों में भेद करता है कि संख्या भिन्न होने से अर्थ भी भिन्न है। क्योंकि एक वचन के साथ एक वचन की क्रिया का प्रयोग होता है तथा बहुवचन के साथ बहुवचन की क्रिया का प्रयोग होता है। यदि इनमें अर्थभेद नहीं मानेंगे तो दोनों एक हो जाएँगे। जैसे 'पटः एकवचन है, "तन्तवः" बहुवचन है, इनमें भी एकत्व का प्रसंग आएगा। इसलिए शब्द नय संख्या की अपेक्षा अर्थ में भेद करता है। साधन - युष्मत् (तुम) मध्यम पुरुष, अस्मत् (हम) उत्तम, तथा नृप और भूप शब्दों का एक ही अर्थ माना जाय तो मनुष्य और पशु का अर्थ भी एक हो जाना चाहिए। वैयाकरणों ने 'शब्दभेदात् अर्थभेदः' शब्दभेद से अर्थभेद और अर्थभेद से शब्दभेद माना है। यह प्रचलित सिद्धान्त इसी नय के दृष्टिकोण पर अवलम्बित है। एवंभूतनय - एवं इत्थं - इस प्रकार विवक्षित क्रिया परिणाम प्रकार से 'भूत' परिणत अर्थ को जो स्वीकार करता है वह एवंभूत नय है क्योंकि समभिरूढ़ नय इन्दन क्रिया करने पर और नहीं करने पर भी उसको इन्द्र कहता है, यह नय जैसे चलती है तो भी गाय कहता है और बैठी हुई को भी गाय कहता है क्योंकि इसमें रूदि का सद्भाव है। समभिरूद नय में शब्द का अर्थ प्रधान है क्रिया प्रधान नहीं है परन्तु एवंभूत नय क्रियाप्रधान है इसलिए क्रियापरिणतिक्षण में ही उस शब्द को स्वीकार करता है, जैसे क्रीड़ा करते समय इन्द्र को इन्द्र कहेगा। पूजा करते समय उसको इन्द्र और शक्र नहीं कहेगा। यदि पूजा करते समय भी इन्द्र को शक्र कहा जायेगा तो अतिप्रसंग दोष आयेगा अर्थात् नमस्कार करने वाले को भी रसोइया कहना पड़ेगा। एवंभूत नय की अपेक्षा तो कोई भी शब्द क्रियारहित नहीं है। जैसे सर्व वस्तु धातु से बनती है उसी प्रकार शब्द भी पठ् आदि धातुओं से बनते हैं इसलिए सर्वशब्द क्रिया वाले हैं। 'गो' आदि शब्दों से अभिगत शब्द भी क्रिया से व्युत्पन्न हैं जैसे 'गच्छतीति' गौ, चलती है इसलिए गाय है। आशु गच्छति इति अश्व, शीघ्र चलता है इसलिए अश्व है। आ समन्तात् खनतीति आखु - चारों तरफ से जमीन खोदता है इसलिए चूहा 'आखु' कहलाता है। ‘कम्पते वायुना शरीरे इति कपि' जो वायु से शरीर में काँपता है उसको कपिवानर कहते हैं। इसी प्रकार गुणवाची शुक्ल, नील आदि तथा सारे युवादि शब्द भी क्रिया से व्युत्पन्न हैं। जैसे ज्ञायते अनेन इति ज्ञानं, जाना जाता है इसलिए इसको ज्ञान कहते हैं। शुचिभवनात् शुक्लं - पवित्र होने से शुक्ल कहलाता है। इसी प्रकार देवदत्त, यज्ञदत्त आदि इच्छानुसार रखे हुए शब्द भी क्रिया से निष्पन्न हैं। 'देवेन दत्तोऽयं पुत्रो देवदत्तः' देवों के द्वारा दिया हुआ होने से देवदत्त है। 'यज्ञे एनं देयात्' यज्ञ में इसको देना चाहिए इसलिए यज्ञदत्त है। संयोगी, समवाय, द्रव्य शब्द भी क्रिया शब्द है जैसे 'दण्डोऽस्यास्तीति दण्डी' दण्ड इसका है इसलिए दण्डी है। 'विषाण (सींग) मस्यास्तीति विषाणी' सींग इसके हैं इसलिए विषाणी है। ___ इस प्रकार जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया, यदृच्छा सम्बन्ध के भेद से शब्द पाँच प्रकार के हैं। यद्यपि शब्दों की प्रवृत्ति व्यवहार मात्र से है निश्चय नय से नहीं है, तथापि इनसे हमारा लोकव्यवहार चलता है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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