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________________ आराधनासमुच्चयम् ११९ पर्याय शब्द के भेदों से अर्थभेद को ग्रहण नहीं करता है, वह तो कालादिक के भेद से ही अर्थभेद को ग्रहण करता है, परन्तु यह समभिरूढ़ नय पर्यायभेद से अर्थभेद को स्वीकार करता है - जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द विभिन्न अर्थ के गोचर हैं। विभिन्न शब्दवाची होने से हाथी, घोड़ा आदि शब्दों के समान । जैसे "इन्दतीति इन्द्र" अर्थात् क्रीड़ा करने वाला इन्द्र कहलाता है। शक्नोतीति शक्रः, समर्थ होने से शक्र कहलाता है। इन्द्राणी का पति होने से शचीपति कहलाता है। इस प्रकार यह नय पर्यायवाची शब्दों में अर्थभेद स्वीकार करता है। अथवा यह नय शब्द से भी एक कदम आगे बढ़कर सूक्ष्म शाब्दिक चिन्तन करता है। कहता है कि यदि काल और लिंग आदि की भिन्नता अर्थभेद उत्पन्न कर सकती है तो व्युत्पत्ति के भेद में भी वस्तुभेद क्यों न माना जाय ? अतः समभिरूढ़ नय विभिन्न पर्यायवाची शब्दों को एकार्थक नहीं मानता। इसके मतानुसार कोश मिथ्या है क्योंकि वे एकार्थबोधक अनेक शब्दों का प्रतिपादन करते हैं। कोश राजा, नृप और भूप को समानार्थक बतलाता है, किन्तु व्युत्पत्ति की अपेक्षा अर्थभेद स्पष्ट है। राजदण्ड को धारण करने वाला 'राजा'। मनुष्यों का पालन करने वाला 'नृप' । पृथ्वी का रक्षण करने वाला 'भूप' कहलाता है। दोनों में भेद नहीं तथापि शब्दनय की अपेक्षा भेद है। क्योंकि स्वाधीन विवक्षा में कर्तृवाच्य बनता है और पराधीन विवक्षा में कर्मवाच्य बनता है। एक में कर्ता स्वतन्त्र है, कर्ता के अनुसार क्रिया है, कर्मवाच्य में कर्ता की मुख्यता नहीं है, उसमें कर्म की मुख्यता है, कर्म के अनुसार क्रिया होती है इसलिए शब्दनय कारक अपेक्षा अर्थभेद मानता है। यद्यपि शब्द नय पर्यायवाची शब्दों को स्वीकार करता है परन्तु वह लिंग, कारक, उपसर्ग आदि की अपेक्षा उनमें भेद स्वीकार करता है, उनका एकार्थ नहीं मानता है। ‘पर्वतमधिवसति' यहाँ कर्मकारक अधिकरण के स्थान में हो गया है। यह शब्दनय को इष्ट नहीं है। 'स्था' धातु परस्मैपदी है। सं, अव, प्र, वि उपसर्ग के साथ आत्मनेपदी हो जाती है - संतिष्ठते आदि । व्याकरण से ठीक होने पर भी यह प्रयोग शब्द नय की दृष्टि में ठीक नहीं है। इस प्रकार साधनभेद भी इष्ट नहीं है जैसे कोई कहता है कि मैं कल जाऊँगा। तब दूसरा कहता है - तू नहीं जाएगा, तेरा पिता चला गया है। इन दोनों में 'मैं, तू' शब्दों का उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष रूप साधनों का प्रयोग एक ही व्यक्ति के लिए सरल और वक्र हो गया है। इसका भी शब्द नय विरोध करता है। शब्द नय तो सरल, अव्यभिचारी प्रयोग को पसन्द करता है अर्थात् भिन्न-भिन्न भाषा-प्रयोगों का निषेध कर एक रूप सरल प्रयोग को पुकारता है। स्त्री, पुरुष और नपुंसक के भेद से लिंग तीन प्रकार का है। कुछ शब्द ऐसे हैं जो व्याकरण की अपेक्षा स्त्री होते हुए भी शब्द की अपेक्षा पुरुषवाचक है। कुछ शब्द पुलिंग होते हुए भी स्त्रीवाचक है। कलत्र शब्द नपुंसक लिंग है परन्तु शब्द की अपेक्षा स्त्रीवाचक है। दारा शब्द पुलिंग है परन्तु स्त्रीवाचक है। इस प्रकार कलत्र, दारा, वनिता ये तीनों शब्द स्त्रीवाचक हैं, परन्तु शब्द नय इनमें अर्थभेद करके कहता है कि कलत्र शब्द नपुंसकलिंग है, दारा पुल्लिंग है और वनिता स्त्रीलिंग है। शब्द नय की अपेक्षा ये तीनों एक स्त्रीवाचक नहीं हैं।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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