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________________ आराधनासमुच्चयम् १२४ शरण लेनी पड़ेगी । वह बतलायेगा कि जैसे आम में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि इन्द्रियों से प्रतीत होने वाले स्थूल गुण हैं उसी प्रकार इन्द्रियों के दृष्टिगोचर नहीं होने वाले अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रदेशत्व, अगुरुलधुत्वादि अनन्तगुण आम में हैं। हमने समझ लिया कि आम में अनन्तगुण विद्यमान हैं, फिर भी क्या एक आम का स्वरूप पूरा हो गया। तत्त्वज्ञानी कहेगा कि अभी आम का स्वरूप पूरा हुआ है क्योंकि अभी तो आपने आम का आधा स्वरूप भी नहीं समझा, आम इससे भी विराट् है। यहाँ तक तो आम में अन्वय रूप से रहने वाले सहभावी गुणों की बात हुई मगर आम में अनन्त धर्म ऐसे भी हैं जो क्रमसे उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं, वे क्रमभावी पर्यायें कहलाती हैं। अनन्त सहभावी गुण और क्रमभावी पर्यायों का पिण्ड आम है, इतना जान लेने पर भी आम के गुण पूर्णत: नहीं जाने जाते हैं क्योंकि यह तो आम की एक बाजू है अर्थात् यह तो आम के सत्त्वरूप गुणों का वर्णन है। असत्ता रूप तो अभी अछूता है। उस असत्ता की बाजू क्या है ? आम अपने द्रव्य, भाव, क्षेत्र, काल की अपेक्षा अस्तिरूप है, यह सत्ता की बाजू है और आम घट नहीं है, मुकुट नहीं है, शकट नहीं है, इस प्रकार आम के सिवाय आम में अनन्त पदार्थों का नास्तित्व भी है अर्थात् आम से इतर पदार्थ अनन्त हैं, इसलिए आम के असत्ता धर्म अनन्त हैं। सत्त्व और असत्त्व रूप इन दोनों धर्मों की अपेक्षा आम के धर्मों को जान लेना ही, आम को पूरे रूप से जानना है। इन अनन्त धर्मों को जाने बिना पूर्णरूप से आम नहीं जाना जाता है, इसलिए कहा जाता है कि जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिकालिगे तिहुवणत्थे। णादुं तस्य ण सक्कं सपज्जयं दव्यमेगं वा॥ जो युगपत् त्रिकालिक त्रिभुवनस्थ पदार्थों को नहीं जानता, वह पर्याय सहित एक पदार्थ को भी नहीं जान सकता है। "जे एगं जाणइ से सव्वं जाणई। जे सव्वं जाणई से एगं जाणई॥" एक को जान लेने वाला सबको जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है। यद्यपि जगत् में मूलभूत तत्त्व चेतनात्मक और अचेतनात्मक के भेद से दो ही हैं परन्तु ये दोनों द्रव्य अपने-अपने स्वभाव में, गुणों में और पर्यायों में अनन्तता से सम्पन्न हैं। प्रथम अवस्था में इस अनेक धर्मात्मक वस्तु को जानना दुष्कर प्रतीत होता है, फिर भी यदि मनुष्यं के द्वारा सर्वज्ञप्रणीत शास्त्र का अध्ययन किया जाय तो सरलतया वस्तु के अनेक धर्मों का ज्ञान हो सकता है। आत्मतत्त्व को जानने के लिए जिनेन्द्रकथित सूत्र ही शरण हैं अथवा मनुष्य निष्पक्ष दृष्टि सम्पन्न हो तो दैनिक व्यवहार में आने वाली वस्तुओं से भी बहुत कुछ शिक्षा ले सकते हैं तथा अनेकधर्मात्मक वस्तु की सिद्धि कर सकते हैं।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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