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________________ आराधनासमुच्चयम् - १११ दर्शन नय को स्वीकार नहीं करने के कारण ही एकान्तवाद के पोषक बन गये हैं जबकि जैन दर्शन नयवाद को अंगीकार करने से अनेकान्तवादी है। प्रमाण वस्तु की समग्रता और उसके अखण्ड एकरूप को विषय करता है अर्थात् जानता है और नय उसी वस्तु के अंशों को, उसके खण्ड-खण्ड रूपों को जानता है। किसी भी वस्तु का पूरा स्वरूप और सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसका विश्लेषण करना अनिवार्य है। विश्लेषण के बिना उसका परिपूर्ण स्वरूप नहीं जाना जा सकता। इसलिए तत्त्व का विश्लेषण करना और उसके विश्लिष्ट अखण्ड वा खण्ड स्वरूप को समझना ही नय की उपयोगिता है। नयवाद के द्वारा परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों के अविरोध का मूल खोजा जाता है तथा इनका समन्वय किया जाता है। नय विचारों की मीमांसा है। जहाँ एक ओर वे विचारों के परिणाम और कारण का अन्वेषण करते हैं, वहीं दूसरी ओर परस्पर विरोधी विचारों में अविरोध का बीज खोजकर समन्वय स्थापित करते हैं। जीव, अजीव आदि सभी पदार्थों में परस्पर विरोधी धर्म एवं मन्तव्य उपलब्ध होते हैं, जैसे एक जगह विधान है कि आत्मा नित्य है तो दूसरी जगह कहा गया है कि आत्मा अनित्य है। ऐसे विरुद्ध दिखाई देने वाले धर्म एवं मन्तव्यों के विषय में नयवाद अपेक्षा की नीति अपनाता है। वह विचार करता है कि किस दृष्टिकोण से आत्मा नित्य है और किस दृष्टिकोण से अनित्य ? इस प्रकार के दृष्टिकोणों का अन्वेषण करके उन विचारों के समन्वय की पीठिका तैयार करता है, इस कारण नयवाद अपेक्षावाद भी कहा जाता है। जगत् में विचारों के आदान-प्रदान का साधन नय है। नय का लक्षण - नय श्रुतज्ञान का भेद है। श्रुतं तु स्वार्थं परार्थं च भवति । ज्ञानात्मकं श्रुतं स्वार्थ, वचनात्मकं परार्थं । वचन-विकल्पस्तु नयः। श्रुतज्ञान के दो भेद हैं - स्वार्थ और परार्थ। उसमें जो परार्थ है (अर्थात् वचनों के द्वारा दूसरों को समझाया जाता है।) वह वधनात्मक है और जो वचनात्मक है वही नय है। 'श्रुतमूलनया:' श्रुत का मूल नय हैं। 'श्रुतविषयकदेशज्ञान नय:' श्रुतज्ञान के विषय का एकदेश नय __ अनेक गुणों और अनेक पर्यायों सहित एक परिणाम से दूसरे परिणाम में, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में और एक काल से दूसरे काल में अविनाशी स्वभाव रूप से रहने वाले द्रव्य को जो ले जाता है अर्थात् उसका ज्ञान कराता है, उसे नय कहते हैं। जो श्रुतज्ञान प्रमाण से जाने हुए पदार्थों का एक अंश मुख्यत: ग्रहण करके अन्य अंशों को गौण रूप से स्वीकार करता है, उसे नय कहते हैं। या वक्ता के अभिप्राय को नय कहते हैं। जो युगपत् सर्व पदार्थों को जानता है वह तत्त्वज्ञान प्रमाण है और जो क्रमश: जानता है वह स्याद्वाद नय से संस्कृत है, वह कर्म भावी ज्ञान नय कहलाता है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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