SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आराधनासमुज्वयम् * ११० केवलज्ञानी सब जीवों और सर्वभावों को सम्यक् प्रकार से युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते हैं। जैसे सूर्य अपने प्रकाश में जितने पदार्थ समाविष्ट होते हैं उन सबको युगपत् प्रकाशित करता है। स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शन से युक्त भगवान् देवलोक और असुरलोक के साथ मनुष्यलोक की अगति, गति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरह: कर्म, सब लोकों के सब जीवों और सब भावों को सम्यक् प्रकार युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते हैं। (ष. खं. १३ / ५, ५ / सू. ८२ / ३४६ ) से इस प्रकार केवलज्ञान का स्वरूप जानना चाहिए। इस प्रकार पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान का कथन पूर्ण हुआ । अब प्रमाण का कथन करते हैं। ज्ञान को ही प्रमाण कहते हैं । 'तत्प्रमाणे' तत्त्वार्थसूत्र में कहा है। हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में जो समर्थ होता है, वह प्रमाण कहलाता है। हित की प्राप्ति और अहित का परिहार ज्ञान से ही होता है, अतः ज्ञान ही प्रमाण है। “स्वापूर्वार्धव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं" (परीक्षामुख ) । सामान्य और विशेषात्मक पदार्थ प्रमाण का विषय होता है इसलिए श्लोक में 'सामान्यविशेषात्मकवस्तुग्रहणात्' यह विशेषण दिया गया है। ज्ञान सामान्य है, प्रमाण विशेष है, ज्ञान के द्वारा जाने हुए विषय में व्यभिचार (संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय) हो सकता है, परन्तु प्रमाण में नहीं। प्रमाण की यही प्रमाणता है कि जाने हुए विषय में व्यभिचार नहीं होता । प्र उत्कृष्ट अर्थात् संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित मान यानी ज्ञान को प्रमाण कहते हैं । Ax सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है, मिथ्याज्ञान (कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ) प्रमाण नहीं हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकार का है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं। अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान एकदेश प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। स्वार्थ और परार्ध के भेद से प्रमाण दो प्रकार का है। ज्ञानात्मक ( मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान) प्रमाण को स्वार्थ प्रमाण कहते हैं और वचनात्मक (श्रुतज्ञान) परार्थ प्रमाण कहलाता है। मतिज्ञानादि चार ज्ञान तो स्वार्थ ही हैं। परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकार का है। इस प्रकार स्वार्थ और परार्थ ज्ञान भी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाण में गर्भित हो जाते हैं। अत: प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है अथवा मतिज्ञानादि भेद से ज्ञान पाँच प्रकार का है तो प्रमाण भी पाँच प्रकार का है। इस प्रकार ज्ञान आराधना में सम्यग्ज्ञान का वर्णन किया । अब ज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थों के कथन करने वाले नयों का कथन करते हैं। विश्व के सभी दर्शनशास्त्र वस्तुतत्त्व की कसौटी रूप में प्रमाण को स्वीकार करते हैं, किन्तु जैनधर्म, दर्शन इस सम्बन्ध में एक नवीन सूझ देता है। जैन दर्शन की मान्यता है कि प्रमाण अकेला वस्तु तत्त्व को परखने में समर्थ नहीं है। वस्तु की यथार्थता का निर्णय प्रमाण और नय के द्वारा ही हो सकता है। जैनेतर
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy