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________________ आराधनासमुच्चयम् - १०३ जघन्य इनके । एकैकं - एक-एक। विकल्पं - विकल्प। एष - ही। जानीयात् - जानना चाहिए। मध्यमजाताभेदा: - मध्य से उत्पन्न भेद। असंख्येयसंघाता: - असंख्येयसंघात। भवन्ति - होते हैं॥७६-७७|| सर्वावधिज्ञानं - सर्वावधिज्ञान ! विरामदेहस्य - चरमशरीरी । संयतस्य - मुनि के। प्रादुर्भवति - उत्पन्न होता है। स: - वह सर्वावधि। उचितक्षेत्रकालाडौः - उचितद्रव्य क्षेत्रादि की अपेक्षा । अणु - अणुपर्यन्त को। जानाति - जानता है ।।७८ ॥ अर्थ - परमावधि ज्ञान चरम शरीरी मुनि के ही होता है। यह परमावधि ज्ञान भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर उत्पन्न होता है तथा यह जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें उत्कृष्ट और जघन्य के एक-एक ही भेद हैं, परन्तु मध्यम के असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं। सर्वावधिज्ञान भी तद्भवमोक्षगामी मुनिराज के ही होता है तथा वह ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा उचित अणु तक पदार्थों को जानता है। देशावधि और परमावधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का है, परन्तु सर्वावधि एक ही प्रकार का है, उसमें जघन्यादि भेद नहीं हैं। ___ वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, अप्रतिपाती और प्रतिपाती ये आठ भेद देशावधि के होते हैं। हीयमान और प्रतिपाती को छोड़कर छह भेद परमावधि के होते हैं। अवस्थित, अनुगामी, अननुगामी और अप्रतिपाती ये चार भेद सर्वावधि के होते हैं। __ यह अवधिज्ञान द्रव्य की अपेक्षा महास्कन्ध से लेकर परमाणु पर्यन्त सर्व पुद्गल द्रव्यों को, वा जीव के साथ बँधे हुए कर्म-पिण्ड तथा प्रतिसमय में सम्यग्दृष्टि आदि जीवों के होने वाली असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा, गुणसंक्रमण, अनुभागखण्डन, स्थितिखण्डन आदि को जानता है। क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोकप्रमाण क्षेत्र को जानता है। काल की अपेक्षा अवधिज्ञान असंख्यात काल की बात जानता है अथवा वर्तमान में समस्त पर्यायविशिष्ट वस्तु को तथा भूत, भविष्यत्काल की असंख्यात वर्ष विशिष्ट पर्यायों सहित पुद्गल पदार्थ को जानता है। भाव की अपेक्षा पुद्गल वा संयोगी जीव एवं संयोगी जीव की पर्यायों को जानता है। रूपी पदार्थों को जानकर भी उनकी सारी पर्यायों को नहीं जानता है, कुछ पर्यायों को ही जानता है। पुद्गल कर्म के संयोग से होने वाले जीव के औदयिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भावों को जानता है, परन्तु कर्मों के अभाव से होने वाले क्षायिक भाव और कर्म निरपेक्ष होने वाले पारिणामिक भावों को अवधिज्ञान नहीं जानता है। अर्थात् ये तीनों अवधिज्ञान भाव की अपेक्षा अतीत, अनागत एवं वर्तमान काल की विषय करने वाली असंख्यात लोक मात्र द्रव्यपर्यायों को जानते हैं। उत्कृष्ट अवधिज्ञान भी अनन्त पर्याय और अनन्त संख्या को नहीं जानता है। १. पर्यायों को भाव कहते हैं।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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