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आराधनासमुच्चयम् १०२
कहा भी है
उत्पद्यतेऽथ मिथ्यागुणजस्य विभङ्गसंज्ञको जन्तोः।
नाभेरधस्थदर्दुरकाकोलूकाधशुभचिह्नात् ।।७५*१॥ इति - मिथ्यात्व गुणस्थानवाले जीव के विभंगावधि ज्ञान होता है। उसके नाभि के नीचे मेंढ़क, गिरगिट, उल्लू आदि अनेक अशुभ चिह्न होते हैं। अर्थात् अशुभ संस्थान नाभि के नीचे और शुभ संस्थान नाभि के ऊस होते हैं क्योंकि शुभ संस्थानों का अधोभाग के साथ विरोध है। तिर्यचों एवं मनुष्यों के विभंगावधि ज्ञान होता है, उसके साधन नाभि से नीचे गिरगिट आदि अशुभ संस्थान होते हैं। जब वही अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन होने से सुअवधिज्ञान रूप परिणत होता है तब वे करण (चिल्ल) नाभि के ऊपर शुभ रूप प्रगट हो जाते हैं।
भवप्रत्यय अवधिज्ञान तो देशावधि ही होता है, परन्तु गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद हैं।
देश का अर्थ सम्यक्त्व है, क्योंकि वह संयम का अवयव है। वह जिस ज्ञान की अवधि अर्थात् मर्यादा है वह 'देशावधिज्ञान' है.... परम अर्थात् असंख्यात लोकमात्र संयमभेद ही जिस ज्ञान की अवधि अर्थात् मर्यादा है वह 'परमावधि ज्ञान' है, परम शब्द का अर्थ ज्येष्ठ है। परम ऐसा जो अवधि वह परमावधि है। विश्व और कृत्स्न ये 'सर्व' शब्द के समानार्थक शब्द हैं। सर्व है मर्यादा जिस ज्ञान की, वह सर्वावधि है। यहाँ सर्व शब्द को समस्त द्रव्य का वाचक नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि जिसके परे अन्य द्रव्य न हो उसके अवधिपना नहीं बनता। किन्तु 'सर्व' शब्द से सर्व के एकदेशरूप रूपी द्रव्य में वर्तमान को ग्रहण करना चाहिए।
अथवा जो आकुंचन और विसर्पणादिकों को प्राप्त हो वह पुद्गल द्रव्य सर्व है, वही जिसकी मर्यादा है वह 'सर्वावधि' है।....अन्त और अवधि जिसके नहीं है वह 'अनन्तावधि' है।
परमावधिविज्ञानं चरमशरीरस्य संयतस्य भवेत् । पूर्ववदेतत् त्रिविधं द्रव्यक्षेत्राद्यमाश्रित्य ॥७६॥ उत्कृष्टजघन्यद्वयमेकैकविकल्पमेव जानीयात् । मध्यमजाताभेदा भवन्त्यसंख्येयसंघाताः ॥७७।। सर्वावधिविज्ञानं विरामदेहस्य संयत्तस्यैव ।
प्रादुर्भवति स जानात्यणुमुचितक्षेत्रकालाद्यैः ॥७८ ।। अन्वयार्थ - परमावधिविज्ञानं - परमावधिज्ञान। चरमशरीरस्य - चरमशरीरी । संयतस्य - मुनि के। भवेत् - होता है। पूर्ववत् - देशावधि के समान । एतत् - यह अवधिज्ञान । द्रव्य क्षेत्राद्यं - द्रव्य, क्षेत्र आदि का। आश्रित्य - आश्रय लेकर । त्रिविधं - तीन प्रकार का है। उत्कृष्टजघन्यद्वयं - उत्कृष्ट,