________________
आराधनासमुच्चयम् १०४
कुमति आदि ज्ञान का स्वरूप आद्यं विज्ञानत्रयमुदितं मिथ्यात्वकर्मणो ह्युदयात् ।
विपरीतरूपमाप्तं मत्यज्ञानादिनाम स्यात् ॥७९॥ अन्वयार्थ - हि - निश्चय से। मिथ्यात्वकर्मणः - मिथ्यात्व कर्म के। उदयात् - उदय से। आy - आदि में। उदितं - कहे गये। विज्ञानत्रयं - तीन ज्ञान (मतिश्रुतअवधि)। विपरीतरूपं - विपरीतरूप को। प्राप्तं - प्राप्त होता हुआ । मत्यज्ञानादिनाम - मति अज्ञान आदि नाम को। स्यात् - प्राप्त हो जाता है ॥७९॥
अर्थ - ज्ञान आत्मा का स्वरूप है, लक्षण है, परन्तु मिथ्यात्व कर्म के उदय से आदि के तीन ज्ञान (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान) विपरीत हो जाते हैं। जिस प्रकार कड़वी तुम्बी के संयोग से मधुर दूध कटु हो जाता है।
स्वसंवेदनज्ञान, इन्द्रियज्ञान, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, स्वार्थानुमान, बुद्धि, मेधा, प्रतिभा, कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारी, संभिन्न श्रोतृबुद्धि ये सब मतिज्ञान के भेद हैं, जिनका कथन मतिज्ञान के वर्णन में किया है, भतिज्ञा के असंख्याल लोकप्रमाण भेद है, परन्तु यह मतिज्ञान मिथ्यात्व कर्म के उदय से विपरीत हो जाता है जिससे वह मतिअज्ञान कहलाता है। कहा भी है - मति-अज्ञान भी क्षायोपशमिक है, क्योंकि यह मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है। मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों का उदय होने से तथा ज्ञानावरणीय के देशघाती स्पर्धकों का उदय होने से और उसी के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयक्षय होने से मतिअज्ञानित्व की उत्पत्ति होती है, इसलिए वह तदुभय प्रत्ययिक है। श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी भी इसी प्रकार से तदुभयप्रत्ययिक जीवभाव बन्ध है, क्योंकि तीन प्रकार के सम्यक्त्व से रहित मतिज्ञानावरणीय कर्म के देशघाती स्पर्धकों के उदय से इसकी उत्पत्ति होती है।
इसी प्रकार श्रुतज्ञान भी मिथ्यात्व के साथ सम्बन्ध होने से कुश्रुत वा श्रुताज्ञान कहलाता है।
"विभंगावधि - मिथ्यादृष्टि जीव के अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए विशिष्ट अवधिज्ञान में मिथ्यादर्शन के उदय से उत्पन्न भंग, विपरीतता होने से यह ज्ञान विभंगावधि कहलाता है। यह विभंगावधि ज्ञान तिर्यंचों और मनुष्यों के कायक्लेशरूप तीव्र तपश्चरण से उत्पन्न होता है, इसलिए गुणप्रत्यय कहलाता है और देवों तथा नारकियों के यह विभंगावधिज्ञान भवप्रत्यय कहलाता है।" यद्यपि तिर्यंचों और मनुष्यों के सम्यग्दर्शन गुण से उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान, देवों के अपर्याप्त अवस्था में पाया जाता है, परन्तु विभंगावधि अपर्याप्त अवस्था में नहीं है।
इन तीनों ज्ञानों में अज्ञानपने का कथन अर्थानां याथात्म्याग्रहणात्संज्ञानमेव चाज्ञानम् । युक्ताचाराभावात् पुत्रस्यापुत्रसंज्ञावत् ।।८।।