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आराधनासार-५६
चिन्मयीं। अनादिकाले हि अयं जीव: अनंतज्ञानमयनिश्चयाराधनालक्षण परमात्मस्वरूपमलभमानः सन् संसाराटव्यां भ्रांत: भ्रमति भ्रमिष्यति च इति मत्वा क्षपकेण निजशुद्धात्मस्वरूपमाराधनीयमिति भावार्थः ।।१४।। ननु भगवन् पूर्वं किं विधाय सा निश्चयाराधनाराधनीयेति पृष्टे आचार्य अनुशास्ति
संसारकारणाई अस्थि हु आलंबणाइ बहुयाई। चइऊण ताई खवओ आराहओ अप्पयं सुद्धं ॥१५॥
संसारकारणानि संति हि आलंबनानि बहुकानि।
त्यक्त्वा तानि क्षपक आराधयतु आत्मानं शुद्धम् ।।१५।। अस्थि अस्तीत्यव्ययक्रियापदं संत्यर्थे बह्वर्थं प्रतिपादयति। उक्त च । सदृशं त्रिषु लिंगेषु । सर्वासु च विभक्तिषु । वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययमिति ।। अस्ति संति। कानि। आलंबणाइ आलंबनानि स्रक्चंदनवनितागीतनृत्यवादित्रादीनि । बहुयाई बहुकानि प्रचुराणि । कथंभूतानि । संसारकारणाई संसारकारणानि नरकतिर्यग्मनुष्यदेव-चतुर्गतिनिबद्धस्य संसारस्य कारणानि हेतुभूतानि। कथं । हु निश्चितं ताइ तानि
जो मानव चिन्मयी - शुद्ध आत्मध्यान, शुद्ध आराधना को जानने के लिए, उसका अनुभव करने के लिए समर्थ नहीं है, शुद्ध आत्मा का जब तक अनुभव नहीं करता है, स्वात्मोन्मुखी प्रवृत्ति नहीं करता है,तब तक वह संसार अटवी में भ्रमण करता रहता है।
हे क्षपक ! यह संसारी आत्मा अनंत ज्ञानमय, निश्चय आराधना लक्षण, परमात्म-स्वरूप निज शुद्धात्मा की आराधना नहीं करता है, इसलिए अनादि काल से इसने भव-वन में भूतकाल में भ्रमण किया है, वर्तमान काल में भ्रमण कर रहा है और भविष्यत् काल में भ्रमण करेगा। ऐसा जानकर क्षपक को निज शुद्ध आत्मम्वरूप की आराधना करनी चाहिए ॥१४॥
भगवन् ! पूर्व में क्या करके उस निश्चय आराधना की आराधना करनी चाहिए, ऐसा पूछने पर आचार्यदेव कथन करते हैं
हे क्षपक ! संसारभ्रमण के मिथ्यादर्शनादि अनेक कारणों के बहुत प्रकार के अवलम्बन हैं- उनको छोड़कर निज शुद्धात्मा की आराधना करो॥१५॥
अस्थि (अस्ति) यह अव्यय क्रियापद है जो बहु अर्थ को प्रतिपादित करता है। सो ही कहा है
"जो सर्व वचन में, सर्व विभक्तियों में और पुरुष आदि तीनों लिंगों में सदृश रहता है अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता है उसको अव्यय कहते हैं।"
मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र आदि संसार-भ्रमण के अनेक कारण हैं। अथवा-नरक तिर्यंच गति आदि संसार के कारण हैं। संसार के इन कारणों के माला, चन्दन, स्त्री, गीत, नृत्य, वादिव आदि बहुत से अवलम्बन हैं।