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आराधनासार-५०
विशुद्ध स्वस्वभावे यच्छूद्धानं शुद्धिबुद्धितः। तन्निश्चयनये सम्यग्दर्शनं मोक्षसाधनं ।। आत्मानमात्मसंभूतं रागादिमलवर्जितं । यो जानाति भवेत्तस्य ज्ञानं निश्चयहेतुजं ॥ तमेव परमात्मानं पौनःपुन्यादयं यदा । अनुतिष्ठेसका जिस्य ज्ञानं चारित्रमुत्तमं ।। परद्रव्येषु सर्वेषु यदिच्छाया निवर्तनं ।
तत: परममात्मानं तनिश्चयनयस्थितैः॥ इति निश्चयाराधनास्वरूपं परिज्ञाय क्षपकेण संसारशरीरभोगेभ्यो विरज्य शुद्धात्मस्वरूपमेवाराधनीयमिति तात्पर्यार्थः ।।१०।।
ननु भगवन् निश्चयाराधनायात्मात्मस्वरूपे आराधिते आराधनाराध्याराधकफलमिति चत्वारो भेदाः कथं घटत इति पृष्टः स्पष्टमाचष्टे आचार्य:
"निर्मल बुद्धि से विशुद्ध निर्मल आत्मस्वभाव का जो श्रद्धान होता है, प्रतीति होती है, निश्चयनय से वही मोक्ष का साधन सम्यग्दर्शन कहलाता है।"
जब आत्मा (संसारी जीव) 11-द्वेष मल से रहित निर्मल आत्मा से उत्पन्न ज्ञानमय अपनी आत्मा को जानता है, अनुभव करता है तब निश्चय कारण से उत्पन्न आत्मा का ज्ञान ही ज्ञानाराधना है। जब आत्मा पुनः पुनः परमात्मा-स्वरूप अपनी आत्मा का अनुष्ठान करता है तब उस आत्मा का ज्ञान ही उत्तम चारित्र रूप हो जाता है।
जब यह आत्मा सर्व पर-द्रव्यों की अभिलाषाओं का त्याग कर परमात्म स्वरूप अपनी आत्मा में तपन करता है, तब आत्मा का ज्ञान ही निश्चय नय से तपोमय हो जाता है। अत: निश्चय नय से यदि अभेदात्मक कथन किया जाता है तो चार आराधनात्मक एक आत्मा ही है इसलिए हे क्षपक ! तू सारे विकल्पों को छोड़कर निज शुद्धात्मा का ध्यान कर।
इस प्रकार निश्चय आराधना के स्वरूप को जानकर समाधिमरण के इच्छुक क्षपक को संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर स्वकीय शुद्धात्मा की ही आराधना करनी चाहिए।॥१०॥
"हे भगवन् ! निश्चय आराधना में शुद्ध आत्मस्वरूप की आराधना होने पर आराधना, आराध्य, आराधक और आराधनाफल ये चार भेद कैसे घटित होते हैं" ऐसा शिष्य के द्वारा पूछने पर आचार्यदेव स्पष्ट करते हुए कहते हैं