________________
आराधनासार - ४९
इदमेव दर्शयति
तम्हा सण णाणं चारित्तं तह तवो य सो अप्या। चऊण समोसे आग्रह सुद्धमापाणं ॥१०॥
तस्माद्दर्शन ज्ञानं चारित्रं तथा तपश्च स आत्मा ।
त्यक्त्वा रागद्वेषौ आराधयतु शुद्धमात्मानम् ॥१०॥ भवतीत्यध्याहार्य व्याख्यायते । भवति । कोसौ। सो अप्पा सः पूर्वोक्तः विश्वविख्यातो वा आत्मा। किं भवतीत्याह। दसण णाणं चरित्तं तह तवो य दसणेति प्राकृतत्वादनुस्वारलोप: । दर्शनं ज्ञानं चारित्रं तथा तपश्च तस्माद्दर्शनज्ञानचारित्रतपोमयकारणात् क्षपकः आराहउ आराधयतु। कं। अप्पाणं आत्मानं । कथंभूतं। शुद्ध रागादिमलमुक्त । किं कृत्वा। चइऊण त्यक्त्वा परित्यज्य। को। रायदोसे रागद्वेषौ रागश्च द्वेषश्च रागद्वेषौ तौ रागद्वेषौ
णवि तं कुणइ अमित्तो सुदृवि सुविराहिओ समत्थोवि।
जं दोयं अणिगाहिय करंति रागो य दोसो य॥ स आत्मा दर्शनज्ञानचारित्रतपोमयः कथमिति चेदुच्यते । यदायमात्मा तं परमात्मानं श्रद्दधाति तदा दर्शनं यदा जानाति तदा ज्ञानं यदानुचरति तदा चारित्रं यदा परद्रव्याभिलाषं परिहरति तदा तपः ।। यदुक्तं
वही दर्शाते हैं
दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप रूप आत्मा ही है इसलिए राग-द्वेष का त्याग करके निज शुद्धात्मा की आराधना करनी चाहिए।।१०।।
प्राकृत व्याकरण के अनुसार दर्शन शब्द के अनुस्वार (न) का लोप हो जाता है।
विश्वविख्यात आत्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप मय है। क्योंकि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप आत्मा को छोड़कर अन्यत्र नहीं पाये जाते हैं; अत: इनका कारण आत्मा ही है। इसलिए हे क्षपक ! राग-द्वेष का त्याग कर सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपोमय निर्मल शुद्धात्मा की आराधना करो।
जो रागद्वेष का त्याग न करके सपश्चरण में प्रवृत्ति करते हैं वे भली प्रकार से आत्मा की आराधना करने में समर्थ नहीं होते हैं अतः हे क्षपक ! आत्माराधना करने के लिए हृदय का मंथन करने वाले राग द्वेष को हृदय से निकाल कर फेंक दो।।
यह आत्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपोमय क्यों है? इसी का कथन करते हैं। जब यह आत्मा शुद्ध नित्य निरंजन आत्मा का श्रद्धान करता है, तब दर्शनमय हो जाता है। वही आत्मा जब अपने आपको जानता है, अपने आप का अनुभव करता है तब ज्ञानमय हो जाता है। जब वही आत्मा, राग-द्वेष का परित्याग कर निज शुद्धात्मा में रमण करता है तब चारित्रमय कहलाता है और जब वही आत्मा पर-द्रव्य की अभिलाषाओं का त्याग कर स्व में तपन करता है, रमण करता है तब तपोमय कहलाता है। क्योंकि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप रूप परिणमन ज्ञान ही करता है और ज्ञान ही आत्मा का निज स्वरूप है अत: दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपोमय आत्मा ही है। सो ही कहा है