________________
आराधनासार- ४८
तस्या निश्चयाराधनाया विशेषमुपदर्शयन्नाह -
सद्दहड़ सस्सहावं जाणड़ अप्पाणमप्पणो सुद्धं ।
तं चिय अणुचरड़ पुणो इंदियविसए णिरोहित्ता ॥९ ॥ श्रद्दधाति स्वस्वभावं जानाति आत्मानमात्मनः शुद्धम् । तमेवानुवाच॥९॥
सद्दहइ श्रद्दधाति प्रत्येति । कं । सस्सहावं स्वस्वभावं शुद्धात्मानं । यदा स्वस्वभावं परमात्मस्वरूपं श्रद्धत्ते तदा दर्शनं भण्यते । पुनः किं करोतीत्याह । जाणइ जानाति । कं । अप्पाणं आत्मानं । कथंभूतं । सुद्धं रागादिमलरहितं । कस्मात् सकाशात् । अप्पणो आत्मनः निजात्मस्वरूपात् । यदा तु आत्मनः सकाशात् आत्मानं जानाति तदा ज्ञानं भण्यते पुणो पुनः पश्चात् तं चिय तमेव अणुचरड़ अनुचरति तमेव शुद्धात्मानमनुचरति पुनः पुनराचरति अनुतिष्ठतीत्यर्थः । यदा तु तमेव शुद्धपरमात्मानमनुचरति तदा चारित्रं भण्यते । किं कृत्वा । णिरोहित्ता निरुध्य । कान् । इंदियविसए इंद्रियविषयान् पंचेंद्रियाणां विषया गोचरा: सप्तविंशतिसंख्याता: । स्पर्शनेंद्रियस्य तत्र अष्टौ विषया ते भवंति | के गुरुलघुस्रिग्धरूक्षशीतोष्णमृदुकर्कशलक्षणाः । रसनायाः कटुकतीक्ष्णमधुराम्लक्षाराः पंच । घ्राणस्य सुगंधदुर्गन्धौ । चक्षुषोः श्वेतपीतरक्तनीलकृष्णाः पंच । श्रोत्रस्य निषादर्षभगांधारषड्जमध्यमधैवतपंचमलक्षणाः सप्त स्वरा इति सर्वे मिलित्वा सप्तविंशतिविषया भवंति तानिंद्रियविषयान्निरुध्य संकोच्य । एतेन तपोप्यात्मैवेत्युक्तं स्यात् ॥९ ॥
उस निश्चय आराधना का विशेषरूप से विभाजन करके आचार्यदेव कथन करते हैं
जानना
अपनी शुद्धात्मा के स्वस्वभाव का श्रद्धान करना दर्शनाराधना है। अपनी शुद्धात्मा के स्वस्वभाव ज्ञानाराधना है और पंचेन्द्रिय विषयाभिलाषाओं को रोककर (छोड़कर) निज शुद्ध स्वभाव में आचरण करना, रमण करना चारित्राराधना और तपाराधना कहलाती है ॥ ९ ॥
हे क्षपक ! जब यह संसारी आत्मा परमात्मस्वरूप निज शुद्ध आत्मा का श्रद्धान करता है, प्रतीति करता है, दृढ़ विश्वास करता है कि "मैं सिद्ध स्वरूप हूँ, वास्तव में (द्रव्यार्थिक नय से ) सिद्ध और मुझ में कोई अन्तर नहीं है, ऐसी दृढ़ प्रतीति होती है आंतरिक ( मात्र वचनात्मक नहीं) तब उसे सम्यग् दर्शन ( दर्शनाराधना) कहते हैं। जब निज शुद्ध आत्मस्वरूप का ज्ञान होता है, शुद्धात्मा को जानता है तब वह ज्ञानाराधना कहलाती है और जब पंचेन्द्रियों के विषयों की अभिलाषाओं का त्याग करके अपने निज शुद्ध स्वरूप में रमण करता है, वही चारित्र और तप आराधना है।
शंका - चारित्र में तप आराधना कैसे गर्भित हो सकती है ?
P
उत्तर
कषायला,
हल्का- भारी, रूखा - चिकना, शीत-उष्ण, मृदु और कर्कश थे आठ स्पर्शन इन्द्रिय के विषय हैं। तीक्ष्ण ( तिक्त), मधुर, खट्टा और खारा (कटु ) ये पाँच रसना इन्द्रिय के विषय हैं। सुगन्ध और दुर्गन्ध ये दो प्राण इन्द्रिय के विषय हैं। श्वेत (सफेद), पीतं (पीला), लाल, नीला और काला ये पाँच चक्षु इन्द्रिय के विषय हैं। निषाद, ऋषभ, गांधार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पंचम ये सात कर्ण इन्द्रिय के विषय हैं। ये सब मिलकर पंचेन्द्रियों के सत्ताईस विषय हैं।
इन पाँच इन्द्रियों के विषयों का त्याग कर अपने में रमण करना तप है क्योंकि पाँच इन्द्रियों की अभिलाषा (इच्छा) का परित्याग करना तप है। पाँच इन्द्रियों के विषयों का त्याग किये बिना चारित्र की आराधना नहीं होती, अतः इन्द्रियनिरोध रूप तप चारित्र में गर्भित हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा में रमण करना निश्चय चारित्र है, वैसे ही निज शुद्धात्मा में तपना तप है ॥ ९ ॥
1