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आराधनासार - ५१
आराहणमासहं आराहय तह फलं च जं भणियं। तं सव्वं जाणिज्जो अप्पाणं चेव णिच्छयदो ॥११॥
आराधनमाराध्य आराधकस्तथा फलं च यद्भणितम् ।
तत्सर्वं जानीहि आत्मानं चैव निश्चयतः ॥११॥ हे क्षपक जाणिज्जो जानीहि। किं तत् । तं सव्वं तत्सर्वं पूर्वोक्तं निखिलं । के। अप्पाणं चेव आत्मानमेतत् शुद्धात्मानमेव । कस्मात् णिच्छयदो निश्चयतः परमार्थतः। तत् किमित्याह। जं भणियं यद्भणितं यत् उक्तं । किं स्वरूपं । आराहणं आराहं आराहय तह फलं च आराधनं सम्यग्दर्शनादिचतुष्टयोद्योतनोपायरूपं आराध्यं सम्यग्दर्शनादिकं आराधकः पुरुषविशेषः क्षपकः तथा फलं च सकलकर्मप्रक्षयो मोक्षः संवरनिर्जरे च, चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । कथमिति चेत्। आराधनं उद्योतनोपायरूप: स एवात्मा जीव: आराध्यं च तदेव परमात्मस्वरूपं आराधकश्च स एव जीवः फलं च यस्मिन् काले तस्यैव परमात्मस्वरूपस्योपलब्धिः स्यात्तदेव फलमिति भावार्थः। तथा च
जारस्पश्चिस्वरूपी दयनयमुपायायितस्तस्य सम्यग्बोधे चाराधनं च स्फुटं तदनुचरीभूत आराधकोऽयम् । कर्मप्रध्वसभावाच्छिवपदमयितोयं च काम्यं फलं तत्
ह्याराध्याराधनाराधकफलमखिलं प्रोक्त आत्मैक एव॥११ ।। आत्मा स्वयं आराधक है, स्वयं ही आराधना है, स्वयं ही आराध्य है और स्वयं आराधना का फल है अत: निश्चय नय से हे क्षपक ! ये सारे भेद एक आत्मा के ही समझो । अर्थात् निश्चय नय से इन चारों को आत्मा ही जानो ।।११।।
क्योंकि आराधना करने वाले सम्यग्दृष्टि पुरुष क्षपक को आराध कहते हैं। जिसकी आराधना की जाती है ऐसे सम्यग्दर्शनादि को आराध्द कहते हैं। आराधना का फल कर्मों का नाश या स्वात्मोपलब्धि है और उस फल का उपाय सम्यग्दर्शन आदि आराधना है !
निश्चय नय की अपेक्षा सम्यग्दर्शनादिचार आराधना का आराधक विशुद्धात्मा हो है। सम्यग्दर्शन आदि चार आराधना का आधार आत्मा होने से आत्मा हो आराध्य है। आत्मा के द्योतन प्रकाशन का उपाय (सम्यग्दर्शनादिरूप) आत्मा ही है अतः आत्मा ही आराधना है और संवर.-निर्जर| सर्व कर्मों का नाश हो स्वात्मोपलब्धि की प्राप्ति आत्मा में ही होती है वा आत्मस्वरूप ही है अत: आराधना का फल भी आत्मा ही है। अर्थात् जिस काल में परमात्म-स्वरूप की उपलब्धि होगो - यह आत्मा की ही परिणति होगी। अत: आराधना के फलस्वरूप आत्या ही है। सो ही कहा है- चैतन्य आत्मा का स्वरूप आराध्य है। चैतन्य स्वरूप की प्राप्ति का उपाय रूप सम्यग्दर्शनादि स्वरूप आत्मा में लीनता आराधना है। सम्यग्दर्शन आदि की आराधना करने वाला अनुचरीभूत आत्मा ही आराधक है और कर्मों के नाश से उत्पन्न शिवपद की प्राप्ति रूप इच्छित फल आत्मा ही है क्योंकि शिवपद की प्राप्ति आत्मा को ही होती है। इसलिए आराध्य आराधक, आराधना, आराधना का फल एक आत्मा ही है ॥११॥