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आराधनासार- ४६
तं चि तयो कायव्यो जेण मणोऽमंगलं ण चिंतेइ ।
जेश ण इंदियहाणी जेण य जोगा ण हायंति ॥ तत्रानशनाबमोद तिपरिसंख्यानरसरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः, प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरमाभ्यंतरं तपः इति द्वादशविधतपश्चरणे य: उद्यमः सा तपस्याराधना भवति । इयमपि दर्शनज्ञानधारित्राराधनातावदाराधनीयैव यतो नैनामंतरेण निकाचितकर्मभ्यो मोक्षः । यदुक्तं
निकाचितानि कर्माणि तावद्भस्मीभवंति न ।
यावत्प्रवचनप्रोक्तस्तपोवह्निर्न दीप्यते ।। तथा च निश्चयनयं जिज्ञासुनापि पाक्षिकेण पूर्वमप्रमत्तेनेयं व्यवहाराराधना सम्यगुपास्या यतो नैना विना निश्चयनये प्रवृत्तिः । यदुक्तं
जीवोऽप्रविश्य व्यवहारमार्ग न निश्चयं ज्ञातुमुपैति शक्तिम् । प्रभाविकाशेक्षणमंतरेण भानूदयं को वदते विवेकी ।।
__ "तपश्चरण ऐसा करना चाहिए जिससे मन अमंगल का चिंतन न करे (आर्त ध्यान में न आये), जिससे इन्द्रियों की हानि न हो और मन, वचन, काय रूप योग विकल न हों।
इस प्रकार अन्तरंग और बहिरंग तप में प्रवृत्ति करना, तपश्चरण में अनुराग रखना, तप आराधना
. जो भव्य प्राणी इस संसार से छूटना चाहता है उसको सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरण रूप चार प्रकार की आराधना करनी चाहिए। क्योंकि आराधना के बिना निकाचित कर्मों का विनाश नहीं होता। सो ही कहा है
“जब तक जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित तपश्चरण रूपी अग्नि हृदय में प्रज्वलित नहीं होती है, तब तक निकाचित कर्म भस्म नहीं होते हैं।"
हे क्षपक ! निश्चय नय के जिज्ञासु पाक्षिक को पूर्व में अप्रमादी होकर इस व्यवहार आराधना की उपासना भली प्रकार करनी चाहिए क्योंकि व्यवहार आराधना की उपासना के बिना निश्चय नय में (निश्चय
आराधना में) प्रवृत्ति नहीं होती है। जैसे तन्दुल का बाह्य छिलका निकाले बिना, भीतर की लालिमा नहीं निकल सकती। सो ही कहा है
"व्यवहार मार्ग में प्रवेश किये बिना जीव निश्चय मार्ग को जानने में वा निश्चय में प्रवेश करने में समर्थ नहीं होता है। जैसे सूर्य की प्रभा और उसके विकास को देखे बिना कौन विवेकी सूर्य के उदय को कह सकता है, जान सकता है।"