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आराधनासार - ४५
भणिया भणिता प्रतिपादिता। कासौ। आराहणा आराधना। क्व। तवम्मि तपसि। कस्मिन् भणिता । जिणसुत्ते जिनसूत्रे सर्वज्ञागमे । कथं । गूणं नूनं निश्चित । का।सा आराधना । सा इति का। कीरइ क्रियते कासौ। जो यः । य इति कः। उज्जमो उद्यमः उपक्रमः। कस्मिन्। बारसविहतवयरणे द्वादशविधतपश्चरणे षड्बाह्यषडभ्यंतरलक्षणे। कया। ससत्तीए स्वशक्त्या शक्त्या विना हि क्रियमाणतपोनिषेधत्वात्। तदुक्तं
वैयावृत्य-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, कुल, गण, संघ, साधु और मनोज्ञ इस दश प्रकार के महानुभावों की सेवा करना वैयावृत्त्य नामका तप है।
जो भव्य जीवों को मोक्षमार्ग की शिक्षा देते हैं, दैगम्बरी दीक्षा प्रदान करते हैं, प्रमाद वा अज्ञान से लगे हुए दोषों का निराकरण करने के लिए प्रायश्चित्त देते हैं वे चतुर्विध संघ के नायक आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं।
__जो ११ अंग और चौदह पूर्व के पाठी होते हैं, जो संघ में सबको पठन-पाठन कराते हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं।
जो अनशन आदि घोर तपश्चरण करते हैं, वे तपस्वी कहलाते हैं। जो संघ में रहकर ज्ञानार्जन करते हैं, ज्ञान-ध्यान में लीन रहते हैं वे शैक्ष्य कहलाते हैं।
वृद्ध रोगी साधु ग्लान कहलाते हैं। अपने गुरुओं के द्वारा दीक्षित वा गुरु-परम्परा में दीक्षित कुल कहलाते हैं। साधुओं के समूह को गण कहते हैं। मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका के समूह को संघ कहते हैं।
___ जो वाग्मी हैं, तत्त्ववेत्ता हैं, जिनसे धर्मप्रभावना होती है, समाज पर जिनका प्रभाव पड़ता है ऐसे मुनि, व्रती वा असंयमी विद्वान् मनोज्ञ कहलाते हैं। इनकी आगत आपत्तियों को दूर करना, इनके पैर दबाना वैयावृत्य नामक तप है।
स्वाध्याय - शास्त्रों का पठन (वाचना) करना, अपने संशयको दूर करने के लिए गुरुजनों से पूछना (पृच्छना), पठित ग्रन्थों के अर्थ का मन में चिंतन करना (अनुप्रेक्षा), पठित पाठ को बार-बार दुहराना (आम्नाय)
और प्रथमानुयोग आदि का भव्यों को अर्थ समझाना, उनको तत्त्व का ज्ञान कराना (धर्मोपदेश) ऐसे पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना, स्वाध्याय नामका तप है।
व्युत्सर्ग - बाह्य में परिग्रह ममत्व का त्याग करना और शरीर के ममत्व का और कषायों का त्याग करना व्युत्सर्ग नामका तप है।
ध्यान-मन को एकाग्र करके अपने आप में स्थिर करना, सारे विकल्पों को दूर करके निर्विकल्प समाधि में लीन होना ध्यान है।
हे क्षपक ! इस प्रकार, जिनेन्द्रदेव कथित बारह प्रकार के तपश्चरण को अपनी शक्ति के अनुसार धारण करो। क्योंकि शक्ति का उल्लंघन करके तपश्चरण करने से मन और इन्द्रियाँ विक्षिप्त हो जाते हैं एवं आर्तध्यान की उत्पत्ति होती है। सो ही कहा है