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+ शुद्ध भाव ही चेतना, ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र है * निश्चय नय से दर्शन ज्ञान चारित्र आत्मा में भिन्न नहीं हैं + रागादि विकारी भावों से रहित होने के कारण आत्मा शून्य कहलाता है अपने गुणों से नहीं। * चित्स्वभाव आत्मा ही मोक्ष का मार्ग है, ऐसा कधन * विकल्पों के रहते हुए शून्य ध्यान नहीं होता है + पानी में नमक की तरह जिसका चित्त ध्यान में विलीन हो जाता है उसी के आत्मा रूपी
अग्नि प्रकट होती है * मन रूप गृह के ऊजड़ होने तथा समस्त इन्द्रियों का व्यापार नष्ट होने पर आत्मा हो
परमात्मा बन जाती है * शून्य ध्यान में लीन रहने वाले अपक के समस्त कर्मों का क्षय होता है + समस्त कर्मों का क्षय होने पर ही अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय प्रकट होते हैं * कर्म रूपी कलंक से मुक्त आत्मा समस्त लोकालोक को जानती है * सिद्धात्मा अनन्त काल तक अनन्तसुख का उपभोग करते हैं * संसार से मोक्ष-छुटकारा पाने के लिए क्षपक चार आराधनाओं का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करे * सर्व परिग्रह का त्याग कर जिन्होंने मोक्ष प्राम किया है ऐसे ज्ञानी जीव ही धन्य भाग हैं।
इसी के अन्तर्गत संस्कृत टीकाकार के द्वारा सल्लेखना की विधि का वर्णन * तीव्र वेदना से दुखी क्षपक को किस तरह सम्बोधित किया जाता है, इसका वर्णन * सलेखना के समय क्षपक को शरीर और मन सम्बन्धी दुःख होता है, इसका वर्णन * कठोर संस्तर आदि से होने वाले दुःखों के सहन करने का उपदेश * अनि के संसर्ग से जल के समान चतुर्गति के दुःस्व से यह जीव संतप्त होता है * पूर्वोक्त भावना से भावित क्षप दुःख रूपी शून्य को कुछ भी नहीं गिनता है * रागद्वेष और विषय सुख को छोड़ कर निजात्मा के ध्यान का उपदेश * तप रूपी अग्नि से ही जीव रूपी सुवर्ण निष्कलंक होता है * दुःख शरीर को होता है और शरीर मेरा नहीं है इस भावना से दु:खों को सहन करने
का उपदेश
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