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* मनोगजप्रसारनिरोध नामक अधिकार के अन्तर्गत इन्द्रिय रूपी सेना मनरूपी राजा से
प्रेरित होकर ही प्रसार को प्राप्त होती है, इसका वर्णन * मनरूपी राजा एक पलभर में सामान का उपयोग करता है और उसले दुन्य कोई नहीं है ऐसा निरूपण
१४२ * मनरूपी राजा के मरने पर इन्द्रियों की सेना मरती है और उसके मग्ने पर समस्त कर्म मरते हैं
नष्ट होते हैं, कर्मों के मरने पर मोक्ष और मोक्ष के होने पर सुख होता है, इसलिये मन को मारो १४३ * मनरूपी ऊँट को ज्ञानरूपी मजबूत रस्सी से बांधने वाले संसार-भ्रमण करते हैं * मन के दोष से ही शालिसिक्ध मच्छ नरक को प्राप्त होता हैं
१४७ * मन को वश में करने का उपदेश
१४८ * विषयों की रति शान्त होने पर मन का प्रसार रुकता है + विषयों का आलम्बन छोड़ कर ज्ञान स्वभाव का आलम्बन लेने से जीव मोक्षसुख
को प्राप्त होता है * मन रूपी वृक्ष को खण्डित करने का उपदेश * मन का व्यापार नष्ट हो जाने पर इन्द्रियाँ विषयों में नहीं जाती हैं. ऐसा वर्णन
१५१ * मन का व्यापार नष्ट होने पर आम्रर का निरोध और मन का व्यापार उत्पन्न होने पर कर्मों का बंध होता है
१५२. * जब तक रागद्वेष को छोड़कर यह जीव अपने मन को शून्य नहीं करता है तब तक कर्मों १५३
को नष्ट नहीं कर सकता * मन के नि:स्पन्द हुए बिना सिर्फ शरीर और वचन के निरोध से क्रमों के आस्रव नहीं रुकते * मन का संचार रुक जाने पर ही केवलज्ञान प्रकाशित होता है * कर्मक्षय की इच्छा रखने वाले पुरुष को अपना मन शून्य बनाना चाहिये * विषयों से चित्त के हटाने पर निजस्वभाव की प्राप्ति होती है * आत्मस्वभाव में शून्य नहीं होना चाहिये, इसका वर्णन * शून्य ध्यान के समय क्षपक की कैसी अवस्था होती है
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शून्य ध्यान का लक्षण