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आराधनामारे - १९९
परीषहाद्यविज्ञानादास्रवस्य निरोधिनी।
भागते त्यागयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा ।। पुनरहमात्मा ईदृग्विध इति भावनापर: क्षपको भवतादित्यादिशति
णिच्चो सुक्खसहावो जरमरणविवजिओ सयारूवी। णाणी जम्मणरहिओ इक्कोहं केवलो सुद्धो॥१०४॥
नित्यः सुखस्वभावः जरामरणविवर्जितः सदारूपी ।
ज्ञानी जन्मरहित: एकोह केवलः शुद्धः ।।१०४।। अयमात्मा यद्यपि व्यवहारे। अनित्यस्तथापि शुद्धनिश्चयनयापेक्षया नित्यः अविनश्वरः । यद्यपि व्यवहारेण अनाद्यशुभकर्मवशात् कदाचिदुःखी शुभकर्मवशात्कदाचित्सुखी तथापि शुद्धद्रव्यार्थिकनयापेक्षया सुखसद्भावः परमानंदमेदुरानंतसुखस्वरूपः, यद्यपि व्यवहारेण पंचप्रकारशरीराश्रितत्वात् जरामरणाक्रांत: तथापि निश्चयनयेन जरामरणविवर्जितः । यद्यपि अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण स्पर्शरसगंधवर्णवत्पुद्गलाश्रितत्वात् मूर्तस्वरूपः गौरकृष्णादिरूपोपेतः तथापि शुद्धनयापेक्षया अरूपी रूपवर्जितः। यद्यपि व्यवहारेण
"परीषहादि से होने वाले दुःखों का अनुभव नहीं करने वाले योगी के ध्यान के योग से शीघ्र ही आस्रव का निरोध करने वाली (संवरपूर्वक) कर्मों की निर्जरा होती है। अर्थात् जो क्षपक शारीरिक और मानसिक दुःखों का अनुभव न करके ध्यान के योग से स्वकीय शुद्धात्मा का अनुभव करता है उसके संवर पूर्वक कर्मों की निर्जरा होती है " ॥१०३ ।।
'मेरी आत्मा ऐसी है, इस प्रकार की भावना करने वाला ही क्षपक होता है'; ऐसा कथन करते हैं___ "मैं नित्य हूँ, अनन्त सुख स्वरूप हूँ, सुख स्वभाव वाला हूँ, जरा (बुढ़ापा) और मरण से रहित हूँ। सदा अरूपी हूं, ज्ञानी हूँ, जन्म से रहित हूँ। एक हूँ, केवल (केवलज्ञान स्वरूप) हूँ और शुद्ध हूँ।" ऐसी भावना करने वाला क्षपक होता है॥१०४ ।।
यह आत्मा यद्यपि व्यवहार नय से अनित्य है, तथापि शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा नित्य है, अविनश्वर है।
यद्यपि यह आत्मा व्यवहार नय से अनादिकालीन अशुभ कर्म के उदय से कदाचित् दुःखी होता है और शुभ कर्म के उदय से कदाचित् सुखी होता है; तथापि शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा सुख स्वरूप है, परमानन्द से भरित अवस्था रूप अनन्त सुख्ख स्वरूप है।
यद्यपि यह आत्मा व्यवहार नय से पाँच प्रकार के शरीर (औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्माण) के आश्रित वा युक्त होने से जरा और मरण से आक्रान्त है तथापि निश्चय नय की अपेक्षा जरा एवं मरण से रहित है।