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आराधनासार २००
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मतिश्रुतज्ञानाद्युपेतत्वात् ज्ञानी तथापि निश्चयनयापेक्षया केवलज्ञानस्वभावत्वात् ज्ञानी । यद्यपि व्यवहारे। चतुरशीतिलक्षयोनिषु गृहीत - जन्मत्वाज्जन्मी तथापि शुद्धनिश्चयनयादजन्मा । यद्यपि व्यवहारेण सुरनरादिभेदादने कस्तथापि निश्चयेन टंकोत्कीर्णचित्स्वभावत्वादेकः । यद्यपि व्यवहारेण ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मसंयोगादकेवलः तथापि द्रव्यार्थिकनयापेक्षया केवलः । यद्यपि व्यवहारेण रागाद्युपाधिसंयोगादशुद्धः तथापि शुद्धद्रव्यार्थिकनयापेक्षया शुद्धः ॥ यदुक्तम्
नो शून्यो न जडो न भूतजनितो नो कर्तृभावं गतो, नैको न क्षणिको न विश्वविततां नित्यो न चैकांततः । आत्मा कायमितिश्चिदेकनिलयः कर्ता च भोक्ता स्वयं, संयुक्तः स्थिरताविनाशजननैः प्रत्येकमेकः क्षणे ॥
इति भावनापरिणतस्त्वमात्मानमेव तनोः सकाशान्निस्सारयेति शिक्षयति
इयभावणाई जुत्तो अवगण्णिय देहदुक्खसंघायं । जीवो देहाउ तुमं कहसु खग्गुव्व कोसाओ ॥ १०५ ।।
यद्यपि यह आत्मा अनुपचारित असद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा स्पर्श, रस, गंध और वर्ण वाले पुद्रल कर्म के द्वारा बँधा हुआ होने से मूर्तिक है, गौरा, काला आदि रूप से युक्त है, तथापि शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा अरूपी रूप रसादि से रहित होने से अमूर्त्तिक है।
यद्यपि यह आत्मा व्यवहार नय से मति, श्रुत ज्ञान स्वभाव वाला होने से ज्ञानी है परन्तु निश्चय नय से केवलज्ञानस्वभाव वाला होने से ज्ञानी हैं। यद्यपि व्यवहार नय से चौरासी लाख योनियों में जन्म लेने वाला होने से जन्मी है, जन्म लेने वाला है परन्तु शुद्ध निश्चय नय से यह आत्मा जन्मरहित होने से अजन्मा है । यद्यपि यह आत्मा व्यवहार नय से सुर-नरादि पर्यायों की अपेक्षा अनेक रूप है, तथापि शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा टंकोत्कीर्ण एक चित्स्वभाव वाला होने से एक स्वरूप है। यद्यपि यह आत्मा व्यवहार नय से ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म के संयोग से अकेवल है (दूसरों के आश्रित है) तथापि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा केवल ( असहाय ) है । यद्यपि यह आत्मा व्यवहार नय से रागादि उपाधि के संयोग अशुद्ध है तथापि शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा शुद्ध है। कहा भी है
एकान्त से यह आत्मा न शून्य है, न जड़ है, न पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूत जनित है, न कर्ता भाव को प्राप्त है, न एक है, न क्षणिक है, न सारे लोकाकाश में व्याप्त है, न नित्य है, परन्तु कथंचित् यह आत्मा शरीरप्रमाण है, चैतन्वस्वरूप एक निलय है। कर्जा भी है, स्वयं भोक्ता भी है। एक हैं, अद्वितीय है, प्रत्येक क्षण में एक साथ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त हैं। अर्थात् प्रत्येक समय आत्मा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप है || १०४ ।।
इस प्रकार की भावना वाला ही हे क्षपक ! तू स्वकीय शरीर से आत्मा को पृथक् कर सकता है। उसकी शिक्षा देते हैं
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'इस प्रकार की भावना से युक्त हे क्षपक ! शरीर सम्बन्धी दुःखों के समूह का अनुभव नहीं करके, जीव को शरीर से पृथक् कर, जैसे म्यान से तलवार को पृथक् करते हैं ।। १०५ ।।