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आराधनासार-१८९
यथा यथा तृष्णादिबाधा जायते क्षपकस्य तथा तां समभावनया सहमानस्य कर्मनिरव फलं भवतीत्याचष्टे
जहं जहं पीडा जायइ भुक्खाइपरीसहेहिं देहस्स। सहं तरंगलंति पूर्ण चिमतबहाई कामाई १६॥
यथा यथा पीडा जायते क्षुदादिपरीषहैदेहस्य।
तथा तथा गलंति नून चिरभवबद्धानि कर्माणि ।।९६ ।। जहं जहं पीडा जायइ यथा यथा येन येन प्रकारेण पीडा तीव्रतरवेदना जायते । कस्य। देहस्य जीवाविष्टस्य शरीरस्य । कैः कृत्वा न्यथा जायते। भुक्खाइपरीसहेहिं क्षुत् आदियेषां शीतोष्णदंशमशकादीनां ते क्षुदादयः क्षुदादयश्च ते परीषहास्तैः क्षुदादिपरोषहै: तथा तथा कर्माणि विलीयंते इत्याह । तहं तहं गलंति णूणं तथा तथा गलंति तेन तेन प्रकारेण विलयं प्रपद्यते नून । कानि । कम्माई कर्माणि । कथंभूतानि कर्माणि । चिरभवबद्धानि अनेकभवांतरोपार्जितानि । यद्यपि सिद्धांते तपसा निजरेत्युक्तं तथापि भेदविज्ञानमंतरेण न कर्मनिर्जरा । ततः क्षपकेन तदेवाश्रयणीयं । यदुक्तं
कर्मशुष्कतृणराशिरुन्नतोप्युद्गते शुधिसमाधिमारुतात् ।
भेदबोधदहने हृदि स्थिते योगिनो झटिति भस्मसाद्भवेत् ॥ अग्निसंसर्गाजलमिवाहं दुःखैस्तप्नोस्मीति क्षपकश्चिन्तयेदित्याह
जैसे-जैसे क्षपक को भूख, प्यास आदि की पीड़ा होती है, वैसे-वैसे उन पीड़ाओं को समभावना सहन करने वाले क्षपक के कर्मों की निर्जत होती है, उसी का कथन करते हैं
"हे क्षपकराज ! जैसे-जैसे भूख-प्यास आदि परीषहों के द्वारा शरीर को पीड़ा उत्पन्न होती है, वैसे-वैसे चिरकाल (अनेक भवों) में बँधे हुए कर्म निश्चय से गलते हैं, निर्जरित होते हैं, नष्ट होते हैं ॥१६॥
भूखप्यास, शीत, उष्ण, देशमशक आदि परोषहों के द्वारा जीवयुक्त शरीर में जैसे-जैसे पीडा रोग, व्याधि उत्पन्न होते हैं, वैसे-वैसे अनेक भवों में चिरकाल से बंधे हुए कर्म निस्सन्देह गल जाते हैं, निरित हो जाते हैं।
यद्यपि सिद्धान्तशास्त्रों में तप के द्वारा निर्जरा होती है, तप से कर्म नष्ट होते हैं, ऐसा कहा गया है फिर भी कर्मनिर्जरा का मूल कारण भेदविज्ञान है। भेद-विज्ञान के बिना निर्जरा नहीं होती है। इसलिए क्षपक को भेदविज्ञान की भावना करनी चाहिए। कहा भी है
पवित्र समाधि रूपी वायु से प्रज्वलित भंदविज्ञान रूपी अग्नि के हृदय में स्थित हो जाने पर योगियों के उन्नत (अति तीव्र) भी कर्म रूपी शुष्क तृणराशि शीघ्र ही भस्म हो जाती है ।।९६ ।।
अग्नि के संसर्ग से संतप्त जल के समान “मैं दुःखों से संतप्त हूँ", इस प्रकार चिन्ना करने वाले क्षपक को आचार्य कहते हैं।