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आराधनासार-१०८
भो क्षपक जावकालं तु वससि तं त्वं यावत्कालं यावतं कालं वससि निवास करोषि । क्व। संथारे संस्तरे। तावत् किं करोषीत्याह । तावणिजरसि तावन्निजरयसि। किं तत् । णियकम्मं निजकर्म बहुभवांत-रोपार्जितकर्मसंतानं अवश्यमयमात्मा परामध्यानज्वलनज्वालाजालनिर्दग्ध-मना: क्षणादेव विविधानां कर्मणां निर्जरामारचयति न पुनरात्मज्ञानविहीनः। यदुक्तम्
अज्ञो यद्भवकोटिभिः क्षपयति स्वं कर्म तस्माद्बहु, स्वीकुर्वन् कृतसंवरः स्थिरमना ज्ञानी तु तत्तत्क्षणात् । तीक्ष्णक्लेशहयाश्रितोपि हि पदं नेष्टं तप:स्पंदने,
नीयतं नयति प्रभुः स्फुटतरज्ञानैकसूतोज्झितः ।। कीदृशः सन् कर्मनिर्जरां करोषि त्वमित्याह । तण्हाइदुक्खतत्तो तृष्णाक्षुदंशमशकादिभिर्यदुःखं दुस्सहतरयातना तृष्णादिदुःखं तेन तप्त: कदर्थितः तृष्णादिदुःखतप्तः। किमिति सर्वपरीषहान् सहमानः क्षपक्र; संस्तरमास्थितः । यस्मात् सुगृहीतसंन्यासः सु अतिशयेन गृहीतः संन्यासोऽन्नपानादिनिवृत्तिलक्षणो येन स सुगृहीतसंन्यास: गृहीतसंन्यास: स्वात्मभावनापर: तृष्णादिदुःखमनुभवन्नपि कर्मनिर्जरालक्षणं फलमवाप्नोतीत्यसंदेहमिति ॥९५॥
परमात्मा के ध्यान रूपी अग्निसमूह से निजमन को नष्ट कर दिया है जिसने ऐसा वह क्षपक जब तक संस्तर पर निवास करता है, भूख-प्यास आदि दुःखों को सहन करता हुआ संन्यास में स्थित रहता है, तब तक भवान्तरों (अनेक भवों) के उपार्जित कर्मों की एक क्षण में आत्मज्ञान से अवश्य ही निर्जरा करता है। परन्तु आत्मज्ञान से विहीन क्षपक कर्मों की निर्जरा नहीं कर सकता। कहा भी है
“अज्ञानी करोड़ों भवों में तपश्चरण करके अपने कर्मों का नाश करता है, स्थिर मन बाला, जिसने संवर स्वीकार किया है, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सभ्यक्चारित्र का धारी ज्ञानी मुनि एक क्षण में अनेक भवों में उपार्जित कर्मों का नाश कर देता है।"
स्फुटतर ज्ञान रूपी अद्वितीय सारथी से रहित, तप रूपी रथ में तीक्ष्ण क्लेश रूपी घोड़े से आश्रित मानव अपने इष्ट स्थान पर तपरूपी रथ को ले जाने में समर्थ नहीं है।
क्षुधा, तृषा, दंशमशक आदि परीषहों के द्वारा दुःसह दुस्तर यातनाओं, दुःखों से संतम होता हुआ भी संन्यास में स्थित, अन्नपानादि से निर्वृत्त क्षपक स्वात्म-भावना में तत्पर होकर जब तक संन्यासकाल में समय व्यतीत करता है तब तक उसके असंख्यात-गुणी कर्मों की निर्जरा होती है, अथवा वह कर्मों की निर्जरा के फल को प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है ।।१५ ।।