________________
आराधनामार -१८७
एकस्यापि ममत्वमात्मवपुषः स्यात्संसृते: कारणं का बाह्यार्थकथा प्रथीयसि तपस्याराध्यमानेपि च । तद्वास्यां हरिचंदनेऽपि च समः संश्लिष्टतोऽप्यंगतो भिन्नं स्वं स्वयमंकमात्मनि धृतं पश्यत्यजस्रं मुनिः॥ तृणं वा रत्नं वा रिपुरथ परं मित्रमथवा, सुखं वा दुःखं वा पितृवनमहो सौधमथवा । स्तुतिर्वा निंदा वा मरणमथवा जीवितमथ
स्फुटं निर्ग्रथानां द्वयमपि समं शांतमनसाम् ॥ यावत्परीषहान् सहमानः संस्तरे वससि तावदात्मज्ञानपरिणतस्त्वं कर्माणि क्षपयसीति क्षपकमुत्सायन्नाह
तं सुगहियसपणासे जावक्कालं तु वससि संथारे । तण्हाइदुक्खतत्तो णियकम्मं ताव णिज्जरसि ।।९५॥
त्वं सुगृहीतसंन्यासो यावत्कालं तु वससि संस्तरे। तृष्णादिदु:खतप्तो निजकर्म तावन्निर्जरयसि ॥१५॥
"घोर तपश्चरण की आराधना करने पर भी एक स्वकीय शरीर का ममत्व संसार का कारण होता है तो अन्य बाह्य पदार्थों के ममत्व का तो कहना ही क्या ! वह तो मंसार का कारण ही है। तलवार और हरिचन्दन में समभाव रखने वाले मुनिराज निरन्तर एकक्षेत्रावगाही भी शरीर से भिन्न एक शुद्धात्मा का अपनी आत्मामें अवलोकन करते हैं, ज्ञान रूपी नेत्रों से शरीर से भिन्न अपनी आत्मा का अवलोकन करते हैं, अनुभव करते हैं। शांतरम में मन निर्ग्रन्थ मुनिराजों के हृदय में तृण और रत्न, शत्रु और मित्र, सुख वा दुख, श्मशान और महल, स्तुति और निन्दा, मरण और जीवन दोनों ही समान हैं अर्थात् प्रतिकूलता और अनुकूलता में मुनिराज के समभाव होता है और यह समभाव ही आत्मावलोकन में कारण बनता है। इसलिए हे क्षपक ! तू इस शारीरिक पीड़ा को समभावों से सहन कर ॥९४ ॥
निर्यापकाचार्य क्षपक को उत्साहित करते हुए कहते हैं कि - जब तक तू इन परीषहों को सहन करते हुए समभावों से संस्तर पर रहेगा, तब तक कर्मों की निर्जरा करेगा। ऐसो शिक्षा देते हैं
हे गृहीतसंन्यास क्षपक ! जब तक भूख-प्यास आदि दुःखों से संतप्त तू संस्तर पर (संन्यास में) रहता है तब तक निज कर्मों की निर्जरा करता है ।।९५॥