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आराधनासार-१८६
कभिन्नमानेशं स्वतोखिलं पश्यतो विशदबोधचक्षुषा ।
तत्कृतेपि परमार्थवेदिनो योगिनो न सुखदुःखकल्पना ।।९३॥ कठिनतरसंस्तरशयनदोषेण यदि दु:खमुपजायते तदा समभावेन सहस्वेति शिक्षा ददत्राह
जड़ उप्पज्जइ दुक्खं कक्कससंथारगहणदोसेण। खीणसरीरस्स तुमं सहतं समभावसंजुत्तो।।९४ ॥
यद्युत्पद्यते दुःखं कर्कशसंस्तरग्रहणदोषेण।
क्षीणशरीरस्य त्वं सहस्व समभावसंयुक्तः ।।९४ ॥ जड़ उपजड़ यदि उत्पद्यते संजायते । किं तत् । दुक्खं कस्य । तव । केन । कर्कशसंस्तरग्रहणदोषेण कर्कशसंस्तरस्य ग्रहणं स्वीकरणं कर्कशसंस्तरग्रहणणं तदेव दोषस्तेन वा दोषः कर्कशसंस्तरग्रहणदोषः तेन कर्कशसंस्तरग्रहणदोषेण । कथंभूतस्य तव । क्षुत्तृड्जनिततीव्रतरपीडावशात् क्षीणं सामर्थ्यविरहितशरीरं यस्य स क्षीणशरीरस्तस्य क्षीणशरीरस्य दुर्बलीभूतकायस्य । तुम सहतं त्वं तदुःखं सहस्व। कीदृशस्त्वं । समभावसंजुत्तो समभावसंयुक्तः सम: अहीं हारे मित्रे शत्रौ तृणे स्त्रैणे समानो यो भावः परिणाम; समभावस्तेन युक्तः समभावसंयुक्तः यतो मणौ लोष्टे समभावपरिणतो सूरिरात्मानमेव पश्यति । यदुत
निरन्तर निर्मल ज्ञान रूपी चक्षु के द्वारा स्वत: कर्मों से भिन्न अखिल आत्मा का अवलोकन करने वाले परमार्थवेदी योगी के कर्मजन्य सुख-दुःख की कल्पना ही नहीं होती है।।१३ ।।
हे क्षपक ! कठिनतर संस्तर पर शयन करने से यदि तुझे दुःख उत्पन्न होता है तो तू समभावों से उसको सहन कर, इस प्रकार शिक्षा देते हुए आचार्य क्षपक को सम्बोधित करते हैं
"हे क्षपक ! कर्कश कठोर संस्तर के ग्रहण के दोष से यदि क्षीणशरीरी तुझे कुछ कष्ट होता है तो तू उसे समता भावों से सहन कर, आकुलता मत कर ॥९४ ।।
भूख-प्यासजनित तीव्रतर पीड़ा से जिसका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया है, शक्तिहीन दुर्बल हो गया है, कठोर-कर्कश संस्तर के ग्रहण करने से जिसके शरीर में पीड़ा होती है, जिससे क्षपक आकुल-व्याकुल होता है तब निर्यापकाचार्य उसको सम्बोधित करते हैं- हे क्षपकराज ! यदि इस कठोर संस्तर के कारण तेरे मन में कुछ पीड़ा का अनुभव हो रहा है तो तु सर्प और हार में, शत्रु और मित्र में, सुख और दुःख में, तृण और सुवर्ण में सम भाव से युक्त होकर इन पीड़ाओं को सहन कर । क्योंकि जो सूरि (क्षपक) मणि और, लोष्ठ (पत्थर) में, सुख और दुःख में समभाव से परिणत होता है, वही अपनी आत्मा का अवलोकन कर सकता है, दूसरा नहीं। सो ही कहा है