________________
आराधनासार - १९०
तत्तोहं तणुजोए दुक्ख्नेहिं अणोवमेहिं तिब्वेहिं। णरसुरणारयतिरिए जहा जलं अग्गिजोएण ॥९७ ॥
तप्तोह तनुयोगे दुःखैरनुपमैस्तीत्रैः।
नरसुरनारकतिरश्चि यथा जलमग्नियोगेन ।।९७॥ तत्तोहं तप्तोऽहं यद्यप्यहं शुद्धनिश्चयनयापेक्षया अनं तज्ञानामृतवापीमध्यमध्यासीन: सदैवानंतसुखस्वभावः तथापि व्यवहारेण अहं तप्तोरिम कर्थितोस्मि। कैः। दुक्नेहिं दुःखैः। कीदृशैः । अनुपमैः उपमारहितैः तथा तीव्रः दुस्सहतरैः। कदा। तनुयोगं वपुः संयोग शरीरसंयोगमासाद्य दुःस्वपापरां परिगतोस्मीत्यर्थः। कस्मिन। णरसुरणारयतिरिए नरश्च सुरश्च नारकश्च तिर्यङ् च नरसुरनारकतिर्यङ् 'द्वंद्वैकत्वमत्र' तस्मिन् नरसुरनारक तिर्थश्चि। तत्र मनुष्यगतौ इष्टवियोगानिष्टसंयोगविपदागमाधिव्याधिसंभवैर्दु:खैरुपद्रुतः। देवगतौ इंद्रादिविभूतिदर्शनसंभूतैर्मानसर्दुःखैः । नरकगतो
असुरोदीरियदुक्खं सारीरं माणसं तहा विविहं ।
खित्तुब्भवं च तिव्वं अण्णोण्णकयं च पंचविहं ॥ इत्युक्तलक्षणैः पंचप्रकारदुखैः तिर्यग्गतौ अतिभारारोपणनासाछेदनभेदनविदारणक्षुत्तष्णाजनि
जिस प्रकार अग्नि के संयोग से जल संतप्त होता है, उसी प्रकार मैं शरीर के संयोग से मानव, देव, नारक और तिर्यंच योनि में तीव्र अनुपम दुःखों से संतप्त हुआ हूँ। अर्थात् चारों गतियों में मैंने अनेक दुःखों को सहन किया है, समाधिमरण काल में यह भूख प्यास का दुःख तो कुछ भी नहीं है ॥९७ ।।
यद्यपि यह आत्मा शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा अनन्त ज्ञान रूपी अमृत की वापिका के मध्य स्थित है, निरन्तर अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख स्वभाव वाला है; तथापि व्यवहार नय की अपेक्षा शरीर के संयोग को प्राप्त कर मानव, देव, नारक और तिर्यंच योनिरूप चारों गतियों में उपमा रहित नीव्र दुम्सहतर दुःखों से संतप्त हुआ है। मनुष्यगति में इष्ट का वियोग, अनिष्ट का संयोग, विपदाओं का आगम, आधि-व्याधि से उत्पन्न अनेक दुःखों से संतप्त हुआ है, उपद्रवित हुआ है।
देव गति में इन्द्रादि की विभूति के दर्शन से उत्पन्न मानसिक दुःखों से संतप्त हुआ है।
नरक गति में असुरोदीरित दुःख, शारीरिक, मानसिक दुःख, अनेक प्रकार के पृथ्वी के स्पर्शन से उत्पन्न दुःख और परस्पर नारकी कृत दुःख इन पाँच प्रकार के नारकीय दुःखों को भोगा है।
तिर्यञ्च गति में अतिभार का आरोपण, नासिका आदि अंगों का छेदन, भेदन, विदारण, भूखप्यास आदि अनेक दु:खों से मेरी आत्मा संतप्त हुई है, अनेक दुःखों को सहन किया है। इसी अर्थ को दृष्टान्त के द्वारा प्रकट करते हैं जैसे अग्नि के संयोग से जल संत होता है उसी प्रकार शुद्ध चैतन्य स्वरूपी मैं भी