________________
आराधनासार - १८१
विद्युते कति नात्मबोधविमुखाः संदेहिनो देहिनः प्राप्यते कतिचित्कदाचन पुनर्जिज्ञासमाना: क्वचित् । आत्मज्ञा: परमात्ममोदसुखिन: प्रोन्मीलदंतर्दृशो,
द्वित्राः स्युर्बहवो यदि त्रिचतुरास्ते पंचषा दुर्लभाः ।। इति यैर्ज्ञानवद्भिः। किं कृतं। सुसाहियं सुसाधितं स्वात्मसात्कृतं । किं तत् । उत्तमढे उत्तमार्थ मोक्षलक्षणपदार्थः । किंकृत्वा। काऊण कृत्वा। किं । सव्वसंगपरिचाए सर्वसंगपरित्यागं सर्चः स चासौ संगश्च सर्वसंगः बाह्याभ्यंतरपरिग्रहलक्षणस्तस्य परित्यास्तं सर्वसंगपरित्यागं विधाय। कदा। अवसाणे अवसाने आयु:प्रांत अथवा अवसानमित्युपलक्षणं तेन बालकावस्थायां तरुणावस्थायां वृद्धावस्थायामपि सर्वसंगपरित्यागं विधाय उत्तमार्थः साधित; । सर्वसंगपरित्यागश्चानया रीत्या कृतः पुरातनैराधुनिकैश्च कर्तव्य इति तद्रीतिमाह। उक्तं च
स्नेहं वैरं संघं परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः । स्वजनं परिजनमपि च क्षात्वा क्षमयेत् प्रियैर्वचनैः।। आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि नि:शेषम् ।।
___ “आत्मज्ञान से विमुख संशयालु संसारी प्राणी कितने नहीं हैं अर्थात् सभी संसारी प्राणी आत्मज्ञान से पराङ्मुख हैं। आत्मज्ञान के जिज्ञासु पुनः क्वचित् (कहीं पर) कदाचित् (किसी काल में) कतिचित् (कुछ) प्राप्त होते हैं। उघड़ गए हैं अन्तरंग नेत्र जिनके ऐसे परमात्म आनन्द से सुखी आत्मज्ञ संसार में दो, तीन होते हैं, बहुत हो तो तीन, चार होते हैं। वे आत्मज्ञानी पाँच, छह तो अत्यन्त दुर्लभ हैं।"
परात्मज्ञानसम्पन्न जिन ज्ञानियों ने आयु के अन्त (मरण समय) में सर्व परिग्रह का त्याग कर उत्तमार्थ को सिद्ध किया है, वे ही जगत् में धन्य हैं। यहाँ पर आयु का अवसान यह उपलक्षण मात्र है अत: बालक अवस्था, तरुण अवस्था और वृद्धावस्था में भी सर्वपरिग्रह का त्याग कर उत्तमार्थ को सिद्ध करते हैं। पुरातन पुरुषों ने सर्व परिग्रह का त्याग इस रीति (विधि) से किया है. आधुनिकों को भी परिग्रह का त्याग करना चाहिए। उसकी विधि का कथन करते है। समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है
सल्लेखना धारण करने के इच्छुक मानव को सर्व प्रथम हर्ष-विषाद का त्याग करना चाहिए । अर्थात् अनुकूल शीत, 3 आदि में हर्ष और प्रतिकूल पदार्थों में विषाद नहीं करना चाहिए क्योंकि हर्षविषाद हो समाधि के घातक हैं।
सल्लेखना धारण करने के लिए स्नेह, वैर, संघ, परिग्रह को छोड़कर शुद्ध मन से प्रिय वचनों से कुटुम्बी जनों से और परिजनों आदि से क्षमा कराकर उनको क्षमा करे। छल-कपट रहित सरल शुद्ध भावों से कृत-कारित- अनुमोदना सहित किये हुए समस्त पापों की गुरु समक्ष आलोचना करके मरणपर्यत पाँचों पापों का त्याग कर महाव्रत धारण करे।