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आराधनासार-१८०
समुल्लसल्लोमशैवालसमन्वितं संसारसमुद्रमलब्धमध्यमुत्तीर्य मोक्षपुराविनश्वरसुखमाराधनाफलभूतमवाप्नोतीति। विज्ञाय कथंभूतं यत् आराधनाचतुःस्कन्धं-पवयणस्स जं सारं प्रवचनस्य आगमस्य सिद्धांतस्य द्वादशांगभेदभिन्नस्य श्रुतस्य यत् सारं रहस्यभूतं । किमर्थमाराधयतु । संसारमोक्खटुं पंच-प्रकारसंसारमोक्षार्थं भवविनाशार्थमिति ।।९० ॥ यैर्मोक्षणोर्थ: स्वसात्कृतस्तत्प्रशंसामाह
धण्णा ते भयवंता अवसाणे सव्वसंगपरिचाए। काऊण उत्तमढें सुसाहियं णाणवंतेहिं ।।९१॥
धन्यास्ते भगवंत: अवसाने सर्वसंगपरित्याग।
कावा उत्तमार्थं मुसाधित वाग्लन्द्धिः ।।११!! णाणवंतेहिं यैः ज्ञानवद्भिः ज्ञान विद्यते येषां ते ज्ञानवंतः तैः ज्ञानवद्भिः विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मज्ञानसंपन्नैः परात्मज्ञानिनश्च संसारे त्रिचतुराः संति । यदुक्तं
माया रूपी मछली के कुल (समूह) से आकुलित, समुल्लसत् लोभ रूप शैवाल से युक्त, नहीं प्राप्त है मध्य जिसका (अपार) ऐसे संसार समुद्र को पार कर आराधना फलभूत, भोक्षपुर के अविनाशी सुख को प्राप्त करता है, ऐसा जान कर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच प्रकार के संसार का नाश करने के लिए द्वादशांग भेद भिन्न सिद्धान्त श्रुत की सारभूत चार प्रकार की आराधना की हे क्षपक ! आराधना करनी चाहिए। अर्थात् हे क्षपक ! चार प्रकार की आराधना ही श्रुत का सार है, यही संसार समुद्र से पार करने वाली है और यही संसार का नाश कर अविनाशी मोक्षसुख को देने वाली है, अत: हे क्षपक ! मन वचन कायसे चार प्रकार की आराधना की आराधना करो। इसी आराधना में मग्न हो। इसी शीतल जल की यापिका में अवगाहन कर संसार ताप को दूर करने का प्रयत्न करो ||९० ॥
जिन महापुरुषों ने मोक्ष के लिए इन आराधनाओं को आत्मसात् किया है उनकी प्रशंसा करते हुए आचार्य कहते हैं
जिन ज्ञानियों ने अन्तसमय में सारे परिग्रह का त्याग कर उत्तमार्थ को सिद्ध किया है वे ही जगत्-पूज्य महापुरुष धन्य हैं ।।९१॥
___ ज्ञान, जिनमें पाया जाता है, वे ज्ञानवान कहलाते हैं परन्तु ज्ञान के बिना कोई भी जीव नहीं है, यहाँ पर विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव परमात्मज्ञान से सम्पन्न को ज्ञान कह! है और परमात्मज्ञान से सम्पन्न ज्ञानी संसार में तीन चार ही प्राप्त हो सकते हैं। सो ही कहा है