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आराधनावार १७९
देहपरिक्को देहा औदारिकवैक्रियिकाहारकतै जसकार्मणानि शरीराणि तैः परिमुक्तः रहितः देहमुक्तः आत्मोत्थसुखांबुधिगताः सिद्धाः सदैव तृप्ता लोकाग्रनिवासिनस्तिष्ठति । यदुक्तम्
येषां कर्मनिदानजन्मविविधक्षुत्तृण्मुखा व्याधयस्तेषामन्नजलादिकौषधगणस्तच्छांतये युज्यते ।
सिद्धानां तु न कर्म तत्कृतरुजो नातः किमन्नादिभिनित्यात्मोत्थसुखामृतांबुधिगतास्तृप्तास्त एव ध्रुवम् ।।
इति सिद्धगतिसाधिकामाराधनां विज्ञाय क्षपकस्त्रिगुप्तिगुप्तो भूत्वा आराधयतु सावधानतयेति निदर्शयतिइय एवं णाऊणं आराहउ पवयणस्स जं सारं । आराहणचउखंधं खवओ संसारमोक्खटुं ॥ ९० ॥
इति एवं ज्ञात्वा आराधयतु प्रवचनस्य यत्सारं । आराधनाचतुःस्कन्धं क्षपकः संसारमोक्षार्थम् ॥ ९० ॥
आराहउ आराधयतु | कोसौ खवओ क्षपकः । किमाराधयतु । आराहणचउखंधं चतुर्णां स्कंधानां समाहारचतुः स्कंधं दर्शनचारित्रतपो- लक्षणं आराधनायाश्चतुः स्कंधं आराधनाचतुः स्कंधं । किंकृत्वा आराध्नोतु । इय एवं पाऊणं इत्येवं पूर्वोक्तप्रकारेण आराधनाधीनांत: करणः प्राणी आराधनाप्रवहणेन विविधतरदुःखभरवारिपूरपूर्णं दुरंतदुर्गतिवडवानलवातुलज्वाला - जालकरालं विविधदुःसाध्यव्याधिमकराकीर्णमध्यं विक्रोधविटपिव्याप्त - विपुलपुलिनं निष्ठुतराहंकारनक्रमक्रोच्छलनभीषणं मायामीनालिकुलाकुलं
जिन जीवों के कर्मों के कारण से होने वाली जन्मादि तथा विविध प्रकार की भूख-प्यास प्रमुख व्याधियाँ हैं, उनकी उन व्याधियों को शांत करने के लिए अन्न, जल आदि औषधियों का प्रयोग किया जाता है परन्तु सिद्धों के कर्म और कर्मकृत रोग नहीं हैं। इसलिए उनको अन्नादि से क्या प्रयोजन हैं, वे सिद्ध भगवान निरंतर नित्य आत्मस्वभाव से उत्पन्न सुख रूपी अमृत के सागर में लीन रहते हैं और वे ही ध्रुव सदा तृप्त हैं ॥ ८९ ॥
इस प्रकार सिद्ध गति की साधिका आराधना का कथन करके क्षपक को तीन गुप्ति में लीन होकर सावधानी से ज्ञानादि की आराधना करनी चाहिए, इसका निर्देशन करते हैं
इस प्रकार जानकर क्षपक को संसार का विनाश करने के लिए प्रवचन की सारभूत आराधना - चतुःस्कन्ध की आराधना करनी चाहिए ॥ ९० ॥
दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप चार प्रकार की आराधना के आधीन अंत:करण बाले क्षपक प्राणी आराधना के प्रवाह से विविधतर दुःख रूपी जल से परिपूर्ण, दुरंत दुर्गति रूप बड़वानल की उठती हुई ज्वाला के समूह से व्याम विविध प्रकार के रोग रूप महामगर मच्छ से व्याप्त हैं मध्य जिसका, भयंकर क्रोध रूपी वृक्षों से न्याप्त है बड़े-बड़े विस्तृत पुलिन जिसके अत्यन्त क्रूर अहंकार रूपी नक्र चक्र के उछलने से भीषण,