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आराधनासार - १८२
आलोचनाविधिश्चाय
कृतकारितानुमनस्त्रिकालविषयं मनोवचनकायैः। परिहत्य कर्म सर्वं परमं नै:कर्ममवलंबे।। मोहाद्यदहमकार्ष समस्तमपि कर्म तत्प्रतिक्रम्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि नि:कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ।। मोहविलासविजूंभितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निःकर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ।। प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः । आत्मनि चैतन्यात्मनि निःकर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ।। समस्तमित्येवमपास्य कर्म त्रैकालिकं शुद्धनयावलंबी। विनीतसोहो पहितं विकारैश्चिन्मात्रमात्मानमाथवलंये ।।
अमृतचन्द्राचार्य ने भी समयसार कलश में आलोचमा विधि इस प्रकार लिखी है
"अतीत, अनागत और वर्तमान काल सम्बन्धी सभी कर्मों का कुत, कारित, अनुमोदना और मन वचन काय से त्यागकर (छोड़कर) उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्था का अवलम्बन करता हूँ। (ऐसी प्रतिज्ञा करता है)। (यह प्रत्याख्यान है।)
मैंने मोह से वा अज्ञान से जो कर्म किये हैं, उन सारे कर्मों का प्रतिक्रमण करके मैं निष्कर्म (कर्मों से रहित) चैतन्य स्वरूप अपने आत्मा में नित्य अपनी आत्मा के द्वारा प्रवृत्ति करता हूँ। अर्थात् परप्रवृत्ति को छोड़कर स्वकीय शुद्धात्मा का अनुभव करता हूँ। (यह प्रतिक्रमण है)।
क्षपक अपने मन में विचार करता है कि मोह की विलासवृद्धि को प्राम हुआ मैं उदयमान कर्म की आलोचना करके अपनी आत्मा (निजशक्ति) के द्वारा निष्कर्म चैतन्य स्वरूप निजात्मा में ही निरन्तर प्रवृत्ति करता हूँ। (यह आलोचना विधि है।)
__ प्रत्याख्यान करने वाला विचार करता है कि भविष्य काल में होने वाले सारे कर्मों का (कर्मागमन में कारणभूत सारे भावों का) प्रत्याख्यान (त्याग) करने से जिसका मोह नष्ट हो गया है ऐसा मैं निष्कर्म चैतन्य स्वरूप आत्मा में अपनी आत्मा के द्वारा निरन्तर प्रवृत्ति करता हूँ। अर्थात् हे क्षपक ! सारे आगामी काल में होने वाले विभाव भावों का त्याग कर निरन्तर आत्मस्वभाव में प्रवृत्ति करना ही श्रेयस्कर है।
पूर्वोक्त प्रकार से तीन काल सम्बन्धी सारे कर्मों को दूर करके शुद्धनवावलम्बी वीतमोह मैं सर्व विकारों से रहित होकर शुद्ध चैतन्य मात्र आत्मा का अवलम्बान लेता हूँ।