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भावसंग्रह में लिखा है -
सिरि विमलसेण गणहर सिस्सो नामेण देवसेणुत्ति ।
अबुहजण बोहत्थं तेणेयं विरइयं सुत्तं ।। श्री विमलसेन गणी के शिष्य देवसेन ने अज्ञानी जनों को ज्ञान कराने के लिए इस सूत्र (शास्त्र) की रचना की है। इसमें कितने ही स्थलों पर दर्शनसार की अनेक गाथायें उद्धृत हैं।
३. अत्यात संक्षिप्त परिग हा द्वाः किन दर्शनसार में मिलता है। इन्होंने अपने परिचय स्वरूप अन्तिम दो गाथाएँ लिखी हैं
पुव्यायरिय कयाई गाहाई संचिऊण एयत्थ । सिरिदेवसेण गणिणा धाराए संघसंतेण ॥४९।।
रइओ दसणसारो हारो भव्वाण णवसए णवई।
सिरिपासणाहगेहे सुविसुद्धे माह सुद्ध दसमीए ।।५०1। पूर्वाचार्यों के द्वारा रचित गाथाओं का संचय करके श्री देवसेन गणी ने धारानगरी में निवास करते हुए श्री पार्श्वनाथ के मन्दिर में माघ सुदी दशमी विक्रम संवत् ११० को इस दर्शनसार की रचना की। यद्यपि इन्होंने अपने अन्य किसी ग्रन्थ में ग्रन्थ-रचना का काल, ग्राम आदि का कथन नहीं किया है तथापि इनका समय वि. सं. ९९० में होने से इनके सारे ग्रन्थों की रचना इस काल के आस-पास में ही हुई हैं क्योंकि पंचम काल में मनुष्यों की आयु १२० वर्ष से अधिक तो होती नहीं है।
___ इन्होंने उपर्युक्त गाथा में अपने आपको 'गणी' शब्द से सुशोभित किया है, जिससे सिद्ध होता है कि वे आचार्य पद के धारी साधुओं के अधिपति थे। किसी भी ग्रन्थ में इन्होंने अपने संघ आदि का उल्लेख नहीं किया है परन्तु दर्शनसार में कथित काष्ठा संघ, द्रविड़ संघ, माथुर संघ, यापनीय संघ आदि की उत्पत्ति तथा उनको जैनाभास मानने से सिद्ध होता है कि वे इनमें से किसी संघ के नहीं थे। २. दर्शनसार
यह ५१ गाथाओं का अल्पकाय ग्रन्थ है। इसमें विविध दर्शनों की उत्पत्ति तथा जैन समाज के प्रचलित द्रविड़, काष्ठा, माथुर और यापनीय आदि संघों की उत्पत्ति कब किस प्रकार हुई, इसका उल्लेख किया गया है।
दर्शनसार के अन्त में ग्रन्थकर्ता ने लिखा है कि पूर्वाचार्यों के द्वारा कृत गाथाओं को एक जगह संचित कर धारा नगरी में रहने वाले देवसेन गणी ने इस दर्शनसार की रचना वि.सं. ५५ में की है। इससे संभव है कि इसमें कुछ पूर्वाचार्यों की भी माथाएँ संगृहीत हैं और अब वे इसी ग्रंथ का अंग बन गई हैं।