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# ग्रन्थकार आचार्य देवसेन ॥ ग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्थ कर्ता का नाम, मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण और ग्रन्थनाम इन छह अधिकारों का कथन करके शास्त्र का व्याख्यान करना चाहिए, यह आचार्यों का आदेश है। इन अधिकारों में ग्रन्थकर्ता का नाम और उसका परिचय अत्यावश्यक है क्योंकि कर्ता की प्रमाणता से ही ग्रन्थ में प्रमाणता आती है।
इस आराधनासार ग्रन्थ क रचयिता आचार्य देवसेन हैं क्योंकि ग्रन्थ के अन्त में आचार्यदेव ने अपनी लघुता प्रगट करते हुए स्वयं अपना नामोल्लेख किया है
अमुणियतच्चेण इमं भणियं जं किंपि देवसेोण।
सोहंतु तं मुणिंदा अस्थि हु जड़ पबयणविरुद्धम् ॥११५॥ देवसेन नाम के दो आचार्य हुए हैं, उनमें से ये कौनसे देवेसन हैं, यह निश्चय रूप से नहीं जाना जा सकता तथापि देवसेन आचार्यरचित 'भावसंग्रहादि ग्रन्थों का अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि इस आराधनासार ग्रन्थ के रचयिता भावसंग्रह' के रचयिता देवसेन हैं।
आचार्य देवसेन संस्कृत और प्राकृत भाषा के महान् विद्वान् थे। जिनागम में प्रचलित नयपरम्परा के जानकार तथा उसका सामञ्जस्य बैठाने वाले थे अत: उन्होंने निश्चय और व्यवहार नच से वस्तु का स्वरूप क्या है यह बताने के लिए ही मानों नयचक्र और आलापपद्धति की रचना की है। दर्शनसार की निम्न गाथा -
जड़ पउमणंदिणाहो सीमंधर सामि दिव्वणाणेण।
ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणति ॥४३॥ से सिद्ध होता है कि वे कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा के थे। इस गाथा में उन्होंने उल्लेख किया है कि यदि पद्मनंदी (कुन्दकुन्दाचार्य) सीमन्धर स्वामी की दिव्य वाणी के तत्त्वों को जानकर संयमी जनों को बोध नहीं देते तो मुनिजन सुमार्ग को कैसे जान सकते ? इससे सिद्ध होता है कि वे कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा के साधु थे तथा दर्शनसार की इस गाथा में उन्होंने कुन्दकुन्द स्वामी के विदेहगमन की चर्चा करते हुए उनके प्रति अपनी प्रगाढ़ आस्था प्रगट की है। ___इनके द्वारा रचित भावसंग्रह, दर्शनसार, तत्त्वसार, नय-चक्र, आलापपद्धति आदि अनेक ग्रन्थ हैं।
१. भावसंग्रह - इस ग्रन्थ में ९५० गाथाएं हैं। औपशमिक आदि भावों का विस्तार पूर्वक कथन करके मिथ्यादर्शन और मिथ्यादृष्टियों का खण्डन किया है।