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गणरक्षा के हेतु मध्यम नक्षत्र में क्षपक का मरण होने पर तण का एक प्रतिबिम्ब और उत्तम नक्षत्र में मरण होने पर तृण के दो प्रतिबिम्बों को मृतक के निकट 'द्वितीयोऽर्पित:' कह कर स्थापित कर देना चाहिए। प्रतिबिम्ब बनाने के लिये यदि वहाँ तृण न मिले तो तन्दुलों का चूर्ण, पुष्प की केशर, भस्म अथवा ईंटों के चूर्ण में से जो कुछ प्राप्त हो सके उससे ऊपर ककार और उसके नीचे यकार अर्थात् 'काय' शब्द लिख देना चाहिए।
शंका- क्या उपर्युक्त क्रिया करने से संकल्पी हिंसा का दोष नहीं लगता ?
समाधान तृणमय पिण्ड में मृतक मुनि की स्थापना की जाती है, अतः संकल्पी हिंसा का दोष नहीं लगता। अभिप्राय यह है कि एक साथ दो शवों का या तीन शवों का दाह संस्कार किया जा रहा है।
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क्षपक के शव का अन्तिम संस्कार हो चुकने के बाद संघ का कर्त्तव्य है कि चार कायोत्सर्ग करे । सामान्य मुनि का दाह संस्कार प्रारम्भ हो जाने पर निषद्या की क्रिया में सिद्ध, योग, शान्ति और समाधि भक्ति करे। आचार्य की समाधि होने पर उनके शरीर और निषद्या की क्रिया में सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योग, शान्ति और समाधि भक्ति करे।
अपने संघ के मुनि का मरण होने पर उस दिन सर्व संघ उपवास करे और उस दिन स्वाध्याय न करे तथा दूसरे संघ के मुनि का मरण होने पर स्वाध्याय न करे और उपवास कर भी सकते हैं।
क्षपक के शव का दाह संस्कार करने पर गृहस्थों को तीसरे दिन वहाँ जाकर उनकी अस्थियों आदि की यथायोग्य क्रिया करनी चाहिए।
इस प्रकार संक्षेप से सल्लेखना की क्रिया का कथन किया है, विशेष रूप से भगवती आराधना से जानना चाहिए।
事事
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आर्यिका सुपार्श्वमती